पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त Panchwati By Maithilisharan Gupta All Complete Learning
पंचवटी
मैथिलीशरण गुप्त
पाठ का उद्देश्य
लक्ष्मण के चरित्र के बारे में।
शूर्पनखा के चरित्र के बारे में।
पंचवटी में मनोवैज्ञानिक तत्त्व की जानकारी।
पंचवटी में प्रकृति चित्रण का वर्णन।
पंचवटी में देवर-भाभी संलाप।
कवि परिचय
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (3
अगस्त 1886 – 12 दिसंबर1964) हिंदी के प्रसिद्ध कवि थे। हिंदी
साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम
से संबोधित किया जाता है। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में काफी
प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की
पदवी भी दी थी। उनकी जयंती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि
दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
पृष्ठभूमि
पंचवटी एक वन जो दंडकारण्य में स्थित था। यह स्थान गोदावरी के पास
है। लक्ष्मण ने यहीं शूर्पणखा के नाक, कान काटे थे। यहाँ राम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में यहाँ
विद्यमान है। पंचवटी का वर्णन ‘रामचरितमानस’, ‘रामचंद्रिका’, ‘साकेत’, ‘पंचवटी’ एवं ‘साकेत संत’ आदि प्रायः सभी रामकथा संबंधी काव्यों में मिलता है।
पंचवटी साहित्य रचना
मैथिलीशरण गुप्त के प्रसिद्ध खंडकाव्य ‘पंचवटी’ का कथानक राम - साहित्य का
चिर-परिचित आख्यान - शूर्पणखा प्रसंग है। पंचवटी के रमणीय वातावरण में राम और सीता
पर्णकुटी में विश्राम कर रहें हैं तथा मदनशोभी वीर लक्ष्मण प्रहरी के रूप में
कुटिया के बाहर स्वच्छ शिला पर विराजमान हैं। रात्रि के अंतिम प्रहर में शूर्पणखा
उपस्थित होती है। ढलती रात में अकेली अबला को उस वन में देखकर लक्ष्मण आश्चर्यचकित
रह जाते हैं। लक्ष्मण को विस्मित देख वह स्वयं वार्तालाप आरंभ करती है। और अन्ततः
विवाह का प्रस्ताव करती है। लक्ष्मण को उसका प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं होता।
वार्तालाप में ही प्रातःकाल हो जाता है। पर्णकुटी का द्वार खुलता है। अब शूर्पणखा
राम पर मोहित हो जाती है और उन्हीं का वरण करना चाहती है। दोनों ओर से असफल होने
पर वह विकराल रूप धारण कर लेती है। और अन्ततः लक्ष्मण उसके नाक, कान काट लेते हैं।
पंचवटी शिल्प
इस पूर्व-परिचित प्रसंग में कवि की कतिपय नूतन उद्भावनाएँ हैं परंतु
मूलसूत्र प्राचीन ही है। कथा विकास एवं प्रतिपादन शैली कवि के अपने हैं। मधुर सरल
हास्य-विनोद ने इसे सजीवता प्रदान की है। दृश्यों का नाटकीय परिवर्तन पाठक को बरबस
आकृष्ट कर लेता है। चरित्र चित्रण में प्रायः परंपरा का ही अनुसरण किया गया है, परंतु फिर भी कवि के दृष्टिकोण पर
आधुनिकता की छाप है। पात्रों के इतिहास - प्रतिष्ठित रूप को स्वीकार करने पर भी
गुप्तजी ने उन्हे यथासंभव मानवीय रूप में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। ‘पंचवटी’ की भाषा निखरी हुई खड़ीबोली है।
यद्यपि वह प्रौढ़ नहीं है तथापि प्रांजल एवं कांतिमयी है। इसमें शांत, शृंगार, भयानक एवं वीभत्स रस तथा
रौद्र रस की रेखाएँ मिलती
हैं परंतु
उत्तम रीति से किसी भी रस का परिपाक नहीं हो पाया है। काव्य का आरंभ और अंत दोनों ही शांत
रस में हुआ है। अलंकारों में उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक तथा प्रतीप का प्राधान्य
है।
पंचवटी - कथावस्तु
पंचवटी एक खंड-काव्य है। इसका नायक लक्ष्मण है। कथावस्तु लक्ष्मण द्वारा प्रारंभ होती
है। चाँदनी रात्रि में पर्ण कुटीर के आगे शिला-खंड पर बैठे हुए धनुर्धर
रूप में लक्ष्मण के दर्शन होते हैं। लक्ष्मण मन ही मन प्रकृति की छटा, अपने स्वजनों की चिंता तथा
भार्या उर्मिला पर विचार कर रहे हैं। इसी बीच शूर्पणखा ज्योतिपुंज रूप में प्रकट होकर
विवाह प्रस्ताव रखती है। लक्ष्मण एक पत्नीव्रत होने के कारण स्वीकार नहीं करते। इसी बीच सीता उठकर आती है, प्रभात हो जाता है। सीता अपने मधुर वचनों से भरसक
विवाह प्रस्ताव स्वीकार
करने के पक्ष में है, परंतु शूर्पणखा लक्ष्मण को छोड़कर राम से
विवाह करने का आग्रह करने लगती है। बस! यहीं बात बिगड़ जाती है। क्योंकि राम उसे लक्ष्मण से बातचीत हो जाने के कारण ग्रहण नहीं कर
सकते तथा लक्ष्मण, राम से बातचीत हो जाने पर भाभी तुल्य समझ कर ग्रहण करने से विवश हो
जाते हैं। मोहांध नारी अपने भोग के अभाव में क्रोधित होकर नग्न मायावी रूप धारण करती हैं। लक्ष्मण आज्ञा पाकर नाक
काट लेते हैं। वह रोती, चिल्लाती भाग जाती हैं। कवि कथा का अंत बड़ी ही उचित रीति करते हुए
पुनः राम की कुटिया में आनंद भर देते हैं।
प्रकृति-चित्रण
गुप्त-साहित्य में यह काव्य प्रकृति-चित्रण के लिए सदा अमर रहेगा। कवि को जहाँ
लक्ष्मण के सुंदर तथा आदर्श चरित्र-चित्रण में अद्वितीय सफलता मिली है, वहाँ प्रकृति-चित्रण का मधुमय रूप देकर उन्होंने
अपनी लेखनी को धन्य कर
लिया है।
इस प्रकार इस काव्य का प्रकृति-चित्रण गुप्त - साहित्य का एक अनमोल हीरा है। थोड़ा होते हुए भी तृप्ति की क्षमता रखता है। कवि ने अपनी कविता-कामिनी से पंचवटी का द्वार
क्या खोला है, मानो प्रकृति की पिटारी ही खोल दी है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर तल में।।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से।
मानो झीम रहे हैं तरु भी, मंद पवन के झोंकों से॥
इन पंक्तियों में कवि हमारे मानवीय रोमांच के भावों को प्रकृति में देखते हैं। जिस प्रकार रोमांच
होने पर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृति
के तृणों
के नोक भी खड़े हो गए हैं, मानों वे प्रकृति के रोंगटे हैं।
कवि प्रकृति के वातावरण में सर्वत्र आनंद का अनुभव करते हैं। उनकी दृष्टि
में पवन क्या चलता है, फिरता है,
मानो तृप्ति-मय सोमरस बाँटता है –
“है स्वच्छ सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?”
कवि की लेखनी ने प्रकृति का सूक्ष्मतम स्थल भी पकड़ा है। रात्रि, प्रातः एवं संध्या सुंदरी
का चित्रण एक ही कविता में कवि ने कितनी गहरी अनभूति के साथ किया है, यह देखते ही बनता है-
“है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर।
रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होने पर ॥
और विरागदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है।
शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है।।”
कवि ने प्रकृति को अपनी गहरी अनुभूति के सहारे देखा है। वह कितनी सरला
है। उसमें कितनी आत्मीयता भरी पड़ी है। सत्य तो यह है कि वह सर्वदा हमारे सुखों की भूखी रहती है, तभी तो वह हमारे सुखों में प्रसन्न तथा दुखों
में दुखित एवं रोने लगती
है।
“सरल तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है।
अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।”
प्रकृति हमारी माँ है। बच्चों के प्रतिकूल कार्य पर जिस प्रकार जननी
उसकी बुराई दूर करने के निमित्त कभी-कभी चपत
भी लगा देती है, ठीक उसी भाँति हम समम्त प्राणियों
पर प्रकृति का पुत्रवत् ध्यान
है। साथ ही वह नियम पालन कराने के लिए यम
से भी कठोर हो जाती है-
“अनजानी भूलों पर भी वह अदय दंड तो देती है।
पर बूढ़ों को बच्चों-सा सदय भाव से सेती है।”
गुप्त जी ने प्रकृति के खुले अंचल को एक सुंदर रंगमंच के रूप में देखा है। सरिता के किनारे पर ‘कल-छल’ एवं
उसकी धाराओं में ‘कल-कल’ क्या किसी यांत्रिक ताल या तान से कम है? जिसे सुनकर पत्ते तक नाच
उठते हैं, चंद्रमा और तारे ललचाए नेत्रों
से देखने लगते हैं-
“गोदावरी का तट वह ताल
दे रहा है अब भी।
चंचल जल
कल-कल कर मानो तान ले रहा है अब
भी।।
नाच रहे हैं अब भी पत्ते मन से सुमन महकते हैं।
चंद्र और नक्षत्र ललक कर लालच
भरे लहकते हैं।।”
भला इन तानों को सुनकर गायक और नृत्य करने वाले कैसे चुप रह सकेंगे। देखिए! यहाँ गायक (विहंगगण) तथा नर्तक (केकी अर्थात् मोर) की कैसी होड़ लगी हुई है-
“वैताल विहंग भावी के सम्प्रति ध्यान
लग्न से हैं।
नए गान की
रचना में वे कविकुल-तुल्य मग्न से हैं।।
बीच-बीच में नर्त्तक केकी मानो यह कह देता है।
मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल कौन बड़ाई लेता है॥”
यही नहीं, कवि ने जहाँ प्रकृति को उपमान रूप में देखा है, वहाँ तो मानो सोने में सुगंध भर दिया है-
“कटि के नीचे चिकुर जाल में उलझ रहा था बाँया हाथ।
खेल रहा
हो ज्यों
लहरों से लोल कमल भौरों के साथ।।”
यहाँ लोल लहरों का भौरों से खेलना कितनी मधुर कल्पना है। एक ऊषा का
चित्रण देखिए-
“इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति-पटी का रंग।
किरण
कंटकों
से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग।।
कुछ-कुछ अरुण, सुनहरी कुछ-कुछ, प्राची की अवभूषा थी।
पंचवटी की कुटी खोलकर खड़ी स्वयं क्या ऊषा थी।”
ऐसे सुंदर प्रभाती-चित्रों का चित्रण हिंदी साहित्य में बहुत कम है। कहना न होगा कि पंचवटी वास्तव में प्रकृति की पिटारी
है, जिसके खुलते ही हृदय कह उठता
है, “सच है यह सब।”
देवर-भाभी
का संलाप
पंचवटी के देवर-भाभी संलाप को लेकर साहित्य जगत में विभिन्न धारणाएँ चल रही हैं। इस
विषय पर आलोचकों का
मतैक्य नहीं। कुछ सुधी आलोचक
इस संलाप को मर्यादा एवं औचित्य की सीमा से दूर की वस्तु समझते
हैं। कुछ तो सीता
में मस्ती और चुहुल-कदमी तक का अनुभव सप्रमाण करा देते हैं।
उनके दृष्टिकोण से, पंचवटी की सीता आजकल की कलियुगी भाभी से कुछ भी कम नहीं। अस्तु इस विषय पर गंभीरता से विचार
करने की आवश्यकता है: वास्तव
में सीता मातेश्वरी हैं जैसा कि कवि इस पद में स्वीकार
करते हैं।
“मर्त्यलोक मालिन्य मेटने स्वामी संग जो आई है।
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनाई है॥”
सीता लक्ष्मण से अतिशय प्यार करती हैं, उसे पुत्रवत् समझती है परंतु
देवर का समाज में क्या और कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है? यह भी पूर्ण रूप से जानती
हैं। वे जानती हैं कि इसी देवर का भाई इसी जंगल में पत्नी सहित मंगल करता है और देवर! अरे, वह तो केवल भाभी और भैया
के सुख-साधनों को जुटाने में अपना सब कुछ भूल गया है। पत्नी तक को साथ नहीं लाया। अपने यौवन
और प्रेम का बलिदान भाभी और
भैया की सेवा-वेदी पर
चढ़ा रहा है। वे चाहती हैं
कि लक्ष्मण कम-से-कम एक विवाह ही कर लें। तभी तो उस रमणी के आने पर राम को बुलाती हैं और स्वयं समझाती भी हैं।
परंतु देवर की कर्तव्य शिला पर कोई प्रभाव न देख कर दुखित होती है। उसका इस प्रकार यौवन के दिन काटना
सीता को असह्य-सा हो गया है-
“रहो-रहो पुरुषार्थ यही है, पत्नी तक न साथ लाए”
कहकर भर्रा उठती है, नेत्र छलछला जाते हैं। अहा! कैसा मार्मिक चित्रण है। कितना शुद्ध प्रेम है। इसमें
वासना की गंध ढूँढ़ना अपनी हृदय-हीनता का परिचय देना है। हाँ! यह अवश्य है कि देवर-भाभी का चित्रण भौतिक धरातल पर हुआ है। आदर्शवादिता का आग्रह नहीं अपितु यथार्थता का स्पष्ट वर्णन
है। सीता आकाश की वस्तु न रहकर हमारे सामने की वस्तु है, फिर भी जहाँ तक देवर और भाभी का संबंध है, जो सीमा है, वह बनी हुई है। भाभी रूप
में सीता ने कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है। सीता के जो भी वाक्य हैं, वे स्थल और काल के विचार
से मर्यादित हैं। सीता - के शब्दों में जो आलोचक अधिक से अधिक मर्यादोल्लंघन का प्रमाण देते
हैं. वे निम्नलिखित हैं
(अ) “देवर तुम कैसे निर्दय हो, घर आए जन का अपमान।”
(ब) “देने आई है तुमको निज सर्वस्व
बिना संकोच।
देने में कार्पण्य तुम्हें हो तो लेने में है क्या सोच॥”
(स) “हों सब सफल तुम्हारे काम”
(द) “कब से चलता
है यह बोलो
नूतनशुक रंभा संवाद।”
(भ) “अजी खिन्न तुम न हो हमारे
ये देवर हैं ऐसे ही।।”
प्रकरण पर दृष्टिपात करने से यह पता चलता है कि ये सारी बातें सीता
ने प्रेम की तन्मयता में कही हैं। वह कौन-सी मर्यादापूर्ण भाभी होगी जो अपने देवर की विवाह वार्त्ता सुन कर गदगद
न हो। यदि कवि यहाँ पर सीता
की शुष्कता का परिचय देता, तो सीता की मर्यादा गिरती, पर इस स्थान पर सीता के मुख
से यह शब्द कहलवा कर कवि ने संतोष
लाभ किया है। लक्ष्मण ने जिस भाभी की सेवा में अपना सब कुछ होम कर दिया है, वही भाभी यदि अपने मुख से
उसकी विवाह-वार्त्ता चला देती हैं और उसके सुख की कामना करती हैं तो यह मर्यादा का उल्लंघन हो
गया? कदापि नहीं। सीता देख रही हैं कि लक्ष्मण का
रमणी से वार्तालाप चल रहा है और वह
जानती भी हैं, कि लक्ष्मण शीलवान हैं, बिना हमारी सम्मति के विवाह
प्रस्ताव स्वीकार भी नहीं कर सकते, उस दशा में ऐसे शब्दों का प्रयोग करना सीता की सहृदयता का परिचायक है। इसके
अतिरिक्त सीता
को जीवन भर में यही एक अवसर
मिला है जिस समय वह
अपने
हृदय के भाव
अपने देवर के प्रति खोलकर
रख सकती थी।
“इस विषय में क्या कहूँ, कहाँ का विराग लाए हैं ये”
सीता
के मुँह से कितना अच्छा लगता है। यही देवर और भाभी का
सच्चा स्वरूप है। भाभी इन शब्दों द्वारा देवर
का मन भर देती है।
वास्तविकता तो यह है कि यदि सीता अपने इन मधुर शब्दों में लक्ष्मण के योगी तुल्य कर्त्तव्यों
का बखान न करती तो उनकी हृदय-कठोरता
का ही परिचय मिलता। भाभी
के मुख से अपना बखाने सुनकर देवर (लक्ष्मण) गदगद हो जाते हैं। भाभी के इन शब्दों से दो कार्य सिद्ध होते हैं, पहला यह कि देवर (लक्ष्मण) को संतोष हो जाता है कि भैया और भाभी मेरी सेवाओं
से संतुष्ट हैं। दूसरी ओर वह बाला बार-बार योगी शब्द सुनकर और भी
आकर्षित होती
जाती है। मर्यादोल्लंघन की बात मानने में सबसे बडी अड़चन यह है कि कवि सीता का परिचय देते समय ही उन्हें
मर्यादामय देखा है। यदि हम इस वार्तालाप पर उन्हें मर्यादाहीन मान लेते हैं तो काव्य ही “पैरोडी” बन जाता है। ऐसा करना कवि के साथ
अन्याय होगा।
चरित्र-चित्रण
- सीता, लक्ष्मण और शूर्पणखा
सीता
पंचवटी की
सीता आकाश की शक्ति या
दैविक ज्योति नहीं, अपितु प्रेम से लबालब एक
भारतीय नारी हैं। उनके निकट पशु, पक्षी, स्वजन अथवा शत्रु भी प्रेम के पात्र हैं। एक भारतीय आदर्श नारी अपने
पति के सुख को अपना सुख मानती है, इसका सच्चा एवं निर्णयात्मक
रूप हम सीता में पाते हैं। जब शूर्पणखा राम से विवाह - प्रस्ताव करती है, सीता के मन पर चोट अवश्य पहुँचती है परंतु पति-सुख का ध्यान करके अपनी सम्मति
दे बैठती है :-
“मुसकाई मिथिलेशनंदिनी प्रथम देवरानी फिर सौत।
अंगीकृत है मुझे किंतु तुम माँगों कहीं न मेरी मौत॥”
सीता मातेश्वरी हैं। कवि इन्हें तीन लोकों की लक्ष्मी स्वीकार करते
हैं:
“मर्त्यलोक - मालिन्य मेटने स्वामी संग जो आई है।
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनाई है।।”
वास्तव में कलंक धोने के निमित्त ही स्वामी सहित घोर वन में जाकर सीता
जी उटज (पर्णकुटी) बनाई थी। वे इस यांत्रिक - युग की देवियों की भाँति
अपनी महानता का प्रदर्शन नहीं करतीं। वे महान् भले ही हैं, फिर भी अपने घर में अपने
देवर का स्थान सुरक्षित रखती
हैं। वे
प्रेम से शासन करती हैं और प्रेममय ‘भाभी’ कहलवा
लेती हैं।
अपनी महानता का शासन देवर पर नहीं चलातीं।
सीता का हृदय मोम की
भाँति है, देवर की कर्त्तव्य परायणता
जानती हैं और लक्ष्मण तथा एक तरुणी (शूर्पणखा) के वार्तालाप को सुनकर प्रसन्न होती हैं एवं उसे स्थायी रूप देने का भरसक
प्रयास करती हैं। वास्तव में सीता प्रेम की मूर्ति है।
“भाभी भोजन देती उनको पंचवटी छाया गहरी”
तथा
“वे पशु-पक्षी
भाभी से हैं हिले यहाँ स्वयमतिसानंद”
इत्यादि छंदों में सीता
का प्रकृति एवं पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम का रूप मिलता है।
सीता में नारी-सुलभ आतुरता एवं अस्थिरता है। शूर्पणखा की नाक कटते ही वे उदास हो
जाती हैं।
“हुई उदास विदेह-नंदिनी आतुर एवं अस्थिर भी”
सीता में सबसे बड़ा गुण उनके जीवन की सरलता है। वे उस जीवन में अपनी एक
पुष्प वाटिका बनाती हैं। स्वयं फूलों में पानी देती हैं। उनका संतोष हमें हमारी प्राचीन
संस्कृति की स्मृति दिलाता है।
“नहीं चाहिए हमें विभव बल अब न किसी को डाह रहे।
बस
अपनी जीवन-धारा का यों ही निभृत प्रवाह
बहे।।”
सारांश यह कि सीता, नारी रूप में एक आदर्श, पतिव्रता, संतोषी एवं प्रेम से छलकती हुई सरिता हैं।
लक्ष्मण : राम के केवल दो शब्दों “क्या कर्त्तव्य यही है भाई” में ही यदि हम अपना हृदय
विशाल करके देखें तो लक्ष्मण का चरित्र दर्पण में मुख जैसा स्पष्ट हो जाता है। उनके
त्याग, तपस्या, बलिदान एवं भ्रातृ तथा भाभी-प्रेम का सेवा-युक्त चित्रण देखते ही बनता
है। उनके चरित्र-चित्रण की गाथा एक अच्छी पुस्तक का कलेवर धारण कर सकती है। कुछ प्रमुख
चरित्र - विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं:
1 . राम के अनन्य भक्त,
यथा-
“जो हो जहाँ आर्य रहते हैं, वही राज्य वे करते हैं।
उनके शासन में बन चारी सब स्वच्छन्द विहरते हैं।।”
2. सेवाभाव,
यथा- “किंतु प्राप्ति होगी इस जन को इससे बढ़कर किस - धन की”
3. महान् त्यागी,
यथा- “पर देवर तुम त्यागी बनकर
क्यों घर से मुख मोड़ चले।”
4.
त्यागी होते हुए भी अपनी
प्रशंसा सुनना नहीं चाहते
हैं,
यथा- “आर्ये मुझको बरबस न बना दो मुझको त्यागी”
5. प्रकृति के उपासक हैं, प्रकृति में आत्मीयता का भाव पाते हैं,
यथा- “अतिआत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्हीं से रोती है।”
6. राष्ट्रीय दृष्टिकोण से, लक्ष्मण प्रत्येक व्यक्ति
में आत्म-निर्भरता देखना चाहते हैं,
यथा- “पर अपना हित आप नहीं कर सकता है, यह नरलोक”
7. भरत के प्रति प्रगाढ़ स्नेह-भावना है,
यथा -“पर सौ-सौ सम्राटों से भी हैं सचमुच
वे बड़भागा”
8. प्राचीनता के पुजारी हैं,
यथा-“किंतु मुझे तो सीधे-सच्चे पूर्व भाव ही भाते
हैं।”
9. मानवीय सहज गुणों से रहित पतित व्यक्ति को पशु से भी नित्कृष्ट समझते
हैं,
यथा-“किंतु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ।”
10. चरित्र के दृढ़ हैं। केवल रूप और लावण्य पर मोहित नहीं होते। अकेले निर्जन भूमि में सुंदरी की वरमाला एवं स्वतः प्राप्त को छोड़
देना लक्ष्मण के चरित्र की सबसे बड़ी महानता है।
यथा- “नारी ! किस भ्रम में है तू, प्रेम नहीं यह तो है, मोह”
11. एक पत्नीव्रत धर्म के उपासक है।
यथा- “पाप शांत हो, पाप शांत हो, मैं विवाहित हूँ बाले”
12. सुंदर, धीर, वीर, निर्भीक एवं गांभीर्य की मूर्ति हैं,
यथा-“उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीक मना”
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भोगी कुसुमायुद्ध योगी-सा बना दृष्टिगत होता है।”
13. भाग्य से पुरुषार्थ में अधिक विश्वास रखते हैं।
यथा- “मैं पुरुषार्थ पक्षपाती हूँ, इसको सभी जानते हैं।”
14. सरल स्वभाव है, भाभी के कहते ही झट घड़ा उठाकर उसके पीछे-पीछे जल लाने चले जाते हैं,
यथा- “घड़े उठाकर खड़े हो गए तत्क्षण लक्ष्मण गदगद से”
15. लक्ष्मण के चरित्र चित्रण में स्वयं कवि ने अपने चरित्र का चित्रण
किया है। जिस प्रकार वह स्वयं सरल, पुरुषार्थी, मर्यादा को मानने वाला, राष्ट्रीय एवं ग्राम्य जीवन का पुजारी है, उसी भाँति उसने लक्ष्मण को
भी देखा है।
शूर्पणखा
शूर्पणखा रावण की बहन है। उसका चरित्र आधुनिक युग के विलासमय जीवन एवं
पाश्चात्य प्रेम से किया जा सकता है। उसके चरित्र की निम्नांकित विशेषताएँ हैं:-
1. मायाविनी नारी है, स्वेच्छापूर्वक सर्वत्र विचरने
की शक्ति रखती है।
यथा- “जहाँ चाहती हूँ करती हूँ मैं स्वछंद विहार सदा”
2. वह माया से ज्योतिपुंज एवं रत्नाभरण युक्त हो गई है।
यथा- “चकाचौंध-सी लगी देखकर प्रखर ज्योति की वह बाला”
3. इसका अंत:करण बड़ा ही दूषित
है, उसमें काम-वासना की दुर्गंध आ रही है,
यथा- “थी अत्यंत अतृप्त वासना दीर्घ दृगों से झलक रही”
4. उसका मायावी स्वरूप बड़ा ही आकर्षक एवं मधुर है।
यथा- “कटि के नीचे चिकुर जाल में उलझ रहा था बायाँ हाथ”
5. वह वासना ही को प्रेम समझती
है और सौंदर्य ही को प्रेम का ‘माप-दंड मानती है। पहले तो वह लक्ष्मण की सौम्य मूर्ति पर रीझती है, फिर जब उनसे भी सुंदर राम
को देखती है तो उन पर लट्टू हो जाती है।
अतः उसमें प्रेम नहीं, भोग-लिप्सा है।
6. इसमें आर्य नारीत्व नहीं, दस्यु नारीत्व है। राक्षसी है, अपनी शक्ति के गर्व में किसी
को कुछ नहीं समझती। यथा- “तो आज्ञा दो, उसे जलाये कालानल-सा मेरा क्रोध”
7.
उसे अपने सौंदर्य का गर्व
अत्यधिक है। अपने को सीता से भी अधिक सुंदरी समझती है।
यथा- “मुझे ग्रहण कर भूल जाओगे, इस भामा के ये भ्रू-भंग”
8. इसमें वाक्य पटुता है। वार्तालाप बड़ी ही मार्मिक
रीति से करती
है। प्रयास तो इतना करती
हैं, कि लक्ष्मण को अपनी वाकपटुता
से छका देती है। यथा-
“चले प्रभात वात फिर भी क्या खिले न कोमल कली” कहकर सारा दोष
लक्ष्मण के सिर मढ़ देती
है।
9. वह प्रेम को अपनी शक्ति के अधिकार की वस्तु समझती है।
यथा- “झक मार कर करनी होगी तुमको फिर
मुझपर अनुरक्ति”
वास्तव में वह एक छली, कपटी, मायाविनी एवं धोखापूर्ण नारी है जो अपने संभोग में बाधा पड़ने पर अपने
ही प्रेमी को भयभीत करने के लिए विराट राक्षसी रूप धारण करती है।
पंचवटी- एक मनोवैज्ञानिक सत्य
पंचवटी में कवि ने एक मनोवैज्ञानिक सत्य का विश्लेषण किया है। वह है-
“कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता।
आप आप की सुनता है यह, आप आप से है कहता।।”
इस मनोविज्ञान की समस्या पर कवि ने पंचवटी में 5 पृष्ठ रंग डाले हैं। रात्रि - काल में सीता-राम पर्णकुटी में शयन कर
रहे हैं। लक्ष्मण अकेला बाहर
उनके प्रहरी रूप में बैठा
है। वह अकेला है, कोई पास नहीं। अतः, अपने आप ही
प्रकृति की चाँदनी, सुमंद पवन आदि नियति नटी
के क्रिया-कलाप पर विचार करता है। वह आज रात्रि में अपनी 13 वर्ष की अवधि की समाप्ति पर विचार करके अपने तथा राम के भावी, जीवन पर तर्क-वितर्क करता है। साथ ही स्वजनों
की स्मृतियाँ उसका हृदय भर देती हैं। वह
उर्मिला की
दशा पर विचार करने लग जाता
है
“बेचारी उर्मिला
हमारे लिए कभी रोती होगी।
क्या जाने वह, हम सब वन में होंगे इतने सुख भोगी॥”
इन बातों को विचारना एवं स्वयं उसका उत्तर देना एक मनोवैज्ञानिक सत्य
है, जिसका निर्जन एवं एकांतता
में आविर्भाव होता
है।
लक्ष्मण-शूर्पणखा
संवाद
लक्ष्मण उस एकांत स्थल में अपने स्वजनों का विचार करते-करते अचानक उर्मिला की स्मृति
में विभोर हो उठे। पत्नी के ध्यान में
मग्न हो जाने के कारण उनका अधखुला नेत्र चित्रवत् दृष्टिगोचर होने लगा। जब उसने अपनी
आँखें खोली तो सामने एक दिव्याभरणयुक्त रमणी दिखाई पड़ी। जब रमणी ने लक्ष्मण को विस्मित
देखा, तो पूछा
हे शूरवीर! क्या तुम एक अबला को देखकर
चकित हो गए?
लक्ष्मण- हाँ सुंदरी! सचमुच चकित हूँ कि इस निशा में तुम अकेली क्यों घूम रही हो? मैंने तुमसे प्रथम इसलिए
बातचीत प्रारंभ नहीं किया कि पुरुषों का
अबला से वार्तालाप
धर्मयुक्त नहीं। अब बताओ
कि तुम कौन हो?
शूर्पणखा- हाँ! निष्ठुर कांत! तुम यह भी नहीं पूछते कि
क्या चाहती हो? केवल “कौन हो” पूछ रहे हैं। ज्ञात होता
है तुम मुझे अवश्य ही छल
लोगे। अभी तुम मुझे अपना
अतिथि ही समझो। क्या मुझे कुछ आतिथ्य मिलेगा या नहीं?
लक्ष्मण- हे रमणी! मैं तुम्हारा भाव समझ गया। मैं तुम्हें आतिथ्य देने के योग्य नहीं हूँ क्योंकि निर्धन हूँ।
शूर्पणखा- तो बताओ तुम्हें क्या दुख है? मैं तुम्हारा सभी प्रकार
का कष्ट दूर कर सकती हूँ।
लक्ष्मण- हे नृपकन्ये! तू धन्य है
परंतु मुझे
कोई अभाव नहीं।
शूर्पणखा- तो इस छोटी वय में निष्काम तपस्या क्यों करते हो? क्या तुम इस तपस्या के फल को भोगना नहीं चाहते?
लक्ष्मण- देवी ! व्यर्थ ही में मुझे तापस की पदवी क्यों देती हो। यदि मुझे मुफ्त में
फल मिलेगा तो उसे तुम्हारे ही जैसे के लिए सुरक्षित छोड़ दूँगा।
शूर्पणखा- यदि मैं ही फल होऊँ तो?
लक्ष्मण- तो मैं तुम्हारे लिए एक योग्य पात्र ढूँढ़ दूँगा।
शूर्पणखा- मैंने तुम्हें स्वयं ही खोज लिया है, दूसरे की क्या आवश्यकता?
लक्ष्मण- हे रमणी। तुम्हारा पाप शांत हो। मैं विवाहित हूँ।
शूर्पणखा- क्या बहुनारी वाले पति नहीं हुआ करते? यदि तुम मुझे न वरोगे तो
भला मैं अब कहाँ जाऊँगी। मेरा मन तो तुमने चुरा लिया।
लक्ष्मण- हे नारी। तू व्यर्थ प्रेम की बात क्यों करती है। तुम्हारी यह बातें प्रेममय नहीं अपितु वासनामय हैं।
(इस प्रकार शूर्पणखा और लक्ष्मण के वार्तालाप में हम पाते हैं कि शूर्पणखा
मायाविनी है।)
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