Rajsthan Ki Rajat Boonden – Anupam Mishra राजस्थान की रजत बूँदें — अनुपम मिश्र पाठ का सार

 

पाठ का सार

कुईं रेगिस्तान में मीठे पानी का स्त्रोत –

प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र द्वारा रचित पाठ ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ में राजस्थान की रेतीली भूमि में मीठे पानी के स्रोत कुईं का विस्तृत वर्णन किया गया है। राजस्थान में लोगों ने पानी के संरक्षण के लिए तरह-तरह की युक्तियाँ अपनाईं हैं जिनमें से कुईं की व्यवस्था भी अति महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कुईं कहने का अर्थ हुआ एक अति कम व्यास वाली गहराई जो अपने चारों ओर की रेत से नमी को सोखकर पानी इकट्ठा करती है। यह कुएँ से बहुत रूपों में अलग है।

रेगिस्तान में पानी का संरक्षण –

रेगिस्तानी इलाके में वर्षा न के बराबर होती है और वर्षा हो भी तो उसे रेत बहुत जल्दी ही सोख लेती है। यहाँ रेत के नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी बिछी हुई है। यह पट्टी पानी को अधिक नीचे नहीं जाने देती। इस पट्टी के नीचे से जो पानी कुएँ के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, वह खारा होता है जो पीने के काम में नहीं लाया जा सकता। बस यही कारण था कि लोगों ने वर्षा के पानी को जो रेत में समा गया है उसे फिर से प्राप्त करने के लिए कुईं के निर्माण की संकल्पना की। इस कुईं के निर्माण में वर्षों का अनुभव काम आता है।

राजस्थान में पानी के रूप

राजस्थानी पानी के रूप-लेखक के अनुसार तीन प्रकार के हैं, पहला रूप है - पालरपानी। यह धरातल पर बहने वाला वर्षा का पानी है। दूसरा है पातालपानी जो भूमि के नीचे पाया जाता है। यह प्रायः खारा होता है। इन दोनों के बीच तीसरा रूप है - रेजाणी पानी। धरातल के नीचे लेकिन भूजल में न मिलकर नमी के रूप में बीच में रह जाने वाला पानी ही रेजाणी है। इसी पानी को कुंई के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।

कुईं का निर्माण

राजस्थान में कुंई का निर्माण करने वाले लोगों को चेलवांजी या चेजारो कहा जाता है। ये अपने काम में बहुत ही कुशल होते हैं। वे खुदाई व विशेष तरह की चिनाई करने में दक्षतम हैं। चार–पाँच हाथ के व्यास की कुंई को तीस से साठ-पैंसठ हाथ तक की गहराई तक खोदने वाले चेजारो अत्यंत कुशलता व सावधानीपूर्वक यह कार्य सम्पन्न करते हैं। चिनाई में थोड़ी-सी भी चूक चेजारो के प्राण ले सकती है। हर दिन थोड़ी-थोड़ी खुदाई बसौली से की जाती है। डोल से मलवा निकाला जाता है और फिर अब तक खुद चुकी गहराई की चिनाई की जाती है। ताकि मिट्टी धँसे नहीं। बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गर्मी काफी बढ़ जाती है और हवा भी कम होने लगती है। तब ऊपर से मुट्ठी भर रेत तेजी से नीचे फेंकी जाती है, ताकि ताजी हवा नीचे जा सके और गर्म हवा बाहर आ सके । चेजारो सिर पर कांसे, पीतल या किसी अन्य धातु का एक टोप पहनते हैं ताकि ऊपर से रेत, कंकड़-पत्थर से उनका बचाव हो सके। किसी-किसी स्थान पर ईंट की चिनाई से मिट्टी नहीं रुकती तब कुंई को रस्से से बाँधा जाता है। ऐसे स्थानों पर कुंई खोदने के पूर्व ही खींप नामक घास का ढेर लगाया जाता है। खुदाई शुरू होते ही तीन अंगुल मोटा रस्सा बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया जाता है। जिन स्थानों पर पत्थर और खींप नहीं मिलता वहाँ लकड़ी के लंबे लट्ठों से चिनाई की जाती है। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही खुदाई का काम रुक जाता है और नीचे बूँद-बूँद करके पानी की धार लग जाती है। यह समय कुंई की सफलता स्वरूप उत्सव का अवसर बन जाता है।

कुईं निर्माण की सफलता का उत्सव

पुराने समय में कुंई के सफलतापूर्वक निर्माण पर त्योहार जैसा माहौल होता था। चेलवांजी को कई तरह के उपहार दिए जाते थे। उन्हें तीज-त्योहारों पर, विवाह के अवसरों पर सम्मानित किया जाता था। मगर आजकल समय बदल गया है। अब कुईं निर्माण का काम मज़दूरी देकर पूरा करवा लिया जाता है।

कुईं का बाहुल्य

पूरे राजस्थान में नहीं बल्कि जहाँ-जहाँ रेत के नीचे खड़िया की पट्टी मिलती है,  जैसे - चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर में ही कुईं का निर्माण और बाहुल्य देखा जा सकता है। कहीं-कहीं इन कुंइयों को ‘पार’ भी कहते हैं। 

कुईं निर्माण में सामाजिक नियंत्रण

कुईं निजी संपत्ति होते हुए भी सार्वजनिक संपत्ति मानी जाती है। इन पर ग्राम पंचायतों का नियंत्रण रहता है। किसी नई कुंई के निर्माण के लिए स्वीकृति कम ही दी जाती है। इसका कारण है, भूमि के नीचे की नमी का अधिक विभाजन होना। जितनी अधिक कुंई होंगी उतना ही नमी का बँटवारा हो जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

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