अतीत में दबे पाँव ओम थानवी

 

 पाठ की पृष्ठभूमि

अखंड भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक (1922) में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) के सदस्य राखालदास बैनर्जी ने 2600 सदी पूर्व निर्मित बौद्ध स्तूप के अध्ययन हेतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत में गए और उसके आस-पास की खुदाई करवाने के दौरान उन्हें यह इल्म हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के निशान मौजूद हैं। इस बात की जानकारी उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी सर जॉन मार्शल को दी। इसके बाद वहाँ व्यापक स्तर पर खुदाई करवाई गई और दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया। वर्तमान समय में ये दोनों स्थान पाकिस्तान के अंतर्गत है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुअनजो-दड़ो और पंजाब प्रांत में हड़प्पा नाम के दो नगरों को पुरातात्त्विक क्षेत्र के विद्वानों ने खुदाई के बाद सिंधु घाटी सभ्यता का पता लगाया।

 

पाठ का सार

यह ओम थानवी के यात्रा-वृत्तांत और रिपोर्ट का मिला-जुला रूप है। उन्होंने इस पाठ में विश्व के सबसे पुराने और नियोजित शहरों-मुअनजो-दड़ो तथा हड़प्पा का वर्णन किया है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुअनजो-दड़ो और पंजाब प्रांत में हड़प्पा नाम के दो नगरों को पुरातत्त्वविदों ने खुदाई के दौरान खोज निकाला था और दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया। मुअनजो-दड़ो ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर था। मुअनजो-दड़ो का अर्थ है - ‘मुर्दों का टीला’।

खुदाई की व्यवस्था

इस क्षेत्र की खुदाई तथा अध्ययन के लिए पुरातत्त्वशास्त्री, जैसे – काशीनाश दीक्षित, माधोस्वरूप वत्स, राखालदास बैनर्जी, शीरीन रत्नागर, सर जॉन मार्शल, हेरल्ड हरग्रीव्ज, मार्टिमर वीलर, ग्रेगरी पोसेल, इतिहासकार इरफ़ान हबीब आदि महानुभावों ने अपने ज्ञान और अनुभव से इस सभ्यता के विविध पहलुओं को हमारे सामने उपस्थित किया है। यहाँ पर काशीनाश दीक्षित के नाम पर सबसे अधिक हलके हैं, जिसे डीके ‘बी’, ‘सी’ और ‘जी’ कहते हैं। 

मुअनजो-दड़ो का परिचय-

मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा संसार के प्राचीनतम नियोजित शहर माने जाते हैं। इसकी गलियाँ, सड़कें, कमरे, रसोई, खिड़की, चबूतरे, आँगन, सीढ़ियाँ आदि इस नगर के सुंदर नियोजन की कहानी स्वतः ही कह देते हैं। यहाँ की प्रायः सभी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। यह नगर मैदान में नहीं है, अपितु टीले पर बसा था। ये टीले प्राकृतिक नहीं, अपितु मानव-निर्मित हैं। इनमें कच्ची-पक्की ईंटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया है। यह कार्य सिंधु के पानी से बचाव के लिए किया गया था। यहाँ पर ‘उच्च नगर’ और कामगारों के लिए ‘निम्न नगर’ की व्यवस्था थी। यह सिंधु घाटी सभ्यता के परिपक्व दौर का सबसे उत्कृष्ट नगर है। मुअनजो-दड़ो अपने दौर में सभ्यता का केंद्र था। संभवतः यह इस क्षेत्र की राजधानी थी। यह शहर दो सौ हैक्टेयर में फैला था। अनुमानत: इसकी आबादी लगभग 85 हज़ार रही होगी। पाँच हजार वर्ष पूर्व यह एक महानगर था। इस नगर से सैकड़ों मील दूर हड़प्पा नामक नगर था। जिसके साक्ष्य रेल लाइन बिछने के समय नष्ट हो गए थे।

जल संस्कृति –

उच्च नगर से लगभग पाँच-छह किलोमीटर सिंधु नदी बहती है। नगर में चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा एक तालाब है जिसे ‘महाकुंड’ नाम दिया है। महाकुंड की गहराई सात फुट है। कुंड का तल और दीवारें चूने और पक्की ईंटों से बनाए गए हैं। कुंड में बाहर के अशुद्ध पानी को न आने देने का ध्यान रखा गया है। कुंड में पानी की व्यवस्था के लिए एक तरफ कुआँ है। यह कुआँ दोहरे घेरे वाला है। कुंड के पानी को बाहर निकालने के लिए नालियाँ हैं। ये नालियाँ पक्की ईंटों से ही बनी हैं और उनसे ही ढकी हैं। हर घर में जल निकासी की व्यवस्था है, सभी नालियाँ पक्की ईंटों से ढकी हुई हैं। खुदाई के दौरान यहाँ लगभग 700 कुएँ मिले जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह पहली ऐसी ज्ञात सभ्यता है जिसने भूगर्भ के जल को प्राप्त किया। यहाँ एक विशाल कोठार भी है जिसमें अनाज रखा जाता था। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों, बाजरा आदि के प्रमाण मिले हैं। इससे हमें उन्नत खेती के भी निशान दिखते हैं। इन सभी को आधार बनाते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक जल संस्कृति थी।  

लो प्रोफाइल सभ्यता

सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है। अन्य सभ्यताओं में राजतंत्र और धर्मतंत्र की ताकत को दिखाते हुए भव्य महल, मंदिर और मूर्तियाँ बनाई गईं  किंतु सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में छोटी-छोटी मूर्तियाँ, खिलौने, मृद्-भांड, नावें मिली हैं। ‘याजक नरेश’ के सिर पर रखा मुकुट भी छोटा है। इसमें प्रभुत्व या दिखावे के तेवर कहीं दिखाई नहीं देते। यहाँ आम आदमी के काम आने वाली चीजों को सलीके से बनाया गया है। इन सभी दृष्टियों से यह कह सकते हैं कि सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्यबोध है जो कि समाज पोषित है, राजपोषित या धर्मपोषित नहीं है।

अजायबघर से मिली जानकारी 

यहाँ पर एक अजायबघर है। हालाँकि, इसमें सामान ज्यादा नहीं है क्योंकि अहम चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन में हैं। यों अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है। मगर जो मुट्ठी भर चीजें यहाँ प्रदर्शित हैं, पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफी हैं। काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, उन पर काले चित्र, चौपड़ की गोटियाँ. दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आइना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औजार। इसके अतिरिक्त अजायबघर में एक आश्चर्य की बात है कि यहाँ हथियार के नाम पर कुछ भी नहीं है। लगता है, उस समय, इस सभ्यता में अनुशासन शक्ति के बल पर नहीं था।

समापन

मुअनजो-दड़ो की मुहरों पर हमें शेर, हाथी या गैंडा के चित्र देखने को मिलते हैं और इस मरु-भूमि में ये पशु नहीं हो सकते। शायद उस वक्त यहाँ जंगल भी थे। माना जाता है कि मौसम परिवर्तन के कारण और कुओं के पानी का अत्यधिक नीचे चले जाने के कारण जब खेती-बाड़ी के कार्यों में समस्याएँ आने लगीं तो इस सभ्यता का अंत हो गया।  और आज के दौर में भी सिंधु के पानी के रिसाव के कारण मुअनजो-दड़ो की खुदाई का काम बंद कर दिया गया है। पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। अब तो इन खंडहरों को बचाना भी एक समस्या है।

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