हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1922 में
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के जमानी गाँव में हुआ। नागपुर विश्वविघालय से
एम०ए० करने के बाद कुछ दिनों तक अध्यापन किया। सन् 1947 से स्वतंत्र लेखन करने लगे। जबलपुर से वसुधा
नामक पत्रिका निकाली, जिसकी हिंदी संसार में काफ़ी सराहना हुई। सन् 1995 में
उनका निधन हो गया।
हिंदी के व्यंग्य लेखकों में उनका नाम अग्रणी
है। परसाई जी की कृतियों में हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह), रानी नागफनी
की कहानी, तट की खोज
(उपन्यास), तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की
परत, पगडंडियों
का ज़माना, सदाचार का
तावीज़, शिकायत मुझे
भी है, और अंत में, (निबंध संग्रह), वैष्णव की
फिसलन, तिरछी
रेखाएँ, ठिठुरता हुआ
गणतंत्र, विकलांग
श्रद्धा का दौर (व्यंग्य संग्रह) उल्लेखनीय हैं।
भारतीय जीवन के पाखंड, भ्रष्टाचार, अंतर्विरोध, बेईमानी आदि
पर लिखे उनके व्यंग्य लेखों ने शोषण के विरुद्ध साहित्य की भूमिका का निर्वाह
किया। उनका व्यंग्य लेखन परिवर्तन की चेतना पैदा करता है। कोरे हास्य से अलग यह
व्यंग्य आदर्श के पक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सामाजिक, राजनैतिक और
धार्मिक पाखंड पर लिखे उनके व्यंग्यों ने व्यंग्य—साहित्य के मानकों का निर्माण किया। परसाई जी
बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं किंतु संरचना के अनूठेपन के कारण उनकी
भाषा की मारक क्षमता बहुत बढ़ जाती है।
प्रेमचंद के फटे जूते शीर्षक निबंध में परसाई
जी ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व की सादगी के साथ एक रचनाकार की अंतर्भेदी सामाजिक
दृष्टि का विवेचन करते हुए आज की दिखावे की प्रवृत्ति एवं अवसरवादिता पर व्यंग्य
किया है।
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