Chapter –5 पञ्चमः पाठः सूक्तिमौक्तिकम् Pancham Paatha : Suktimouktikam NCERT Shemushi Class IX (Subject Code-122)


पञ्चमः पाठः
सूक्तिमौक्तिकम्
संस्कृत साहित्य में नीतिग्रन्थों की समृद्ध परम्परा है। इनमें सारगर्भित और सरल रूप में नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं, जिनका उपयोग करके मनुष्य अपने जीवन को सफल और समृद्ध बना सकता है। ऐसे ही मनोहारी और बहुमूल्य सुभाषित यहाँ संकलित हैं, जिनमें सदाचरण की महत्ता, प्रियवाणी की आवश्यकता, परोपकारी पुरुष का स्वभाव, गुणार्जन की प्रेरणा, मित्रता का स्वरूप और उत्तम पुरुष के सम्पर्क से होने वाली शोभा की प्रशंसा और सत्संगति की महिमा आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।।
                                                    मनुस्मृतिः
श्रयूतां धर्मसर्वस्वं श्रतु वा चैवाव धार्यताम्
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
                                                    विदुरनीतिः
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
                                                    चाणक्यनीतिः
पिबन्ति नघः स्वयमेव नाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः।।
                                सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषै: सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणै: समः।।
                                                    मृच्छकटिकम्
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
                                                    नीतिशतकम्
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु
र्हंसा महीमण्डलमण्डनाय।
                       हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
                       येषां मरालैः सह विप्रयोगः।।
                                                    भामिनीविलासः
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
                       आस्वाघतोयाः प्रवहन्ति नघः
                       समुद्रमासाघ भवन्त्यपेयाः।।
                                                    हितोपदेशः


शब्दार्थाः
वित्तम्           धनम्                      धन, ऐश्वर्य
वृत्तम्            आचरणम्               आचरण, चरित्र
अक्षीणः        न क्षीणः, सम्पन्नः     नष्ट न हुआ
धर्मसर्वस्वम्   कर्तव्यसारः             धर्म (कर्तव्यबोध) का सब कुछ
प्रतिकूलानि    विपरीतानि               अनुकूल नहीं
तुष्यन्ति         तोषम् अनुभवन्ति      सन्तुष्ट होते हैं
वक्तव्यम्        कथनीयम्                कहना चाहिए
वारिवाहाः      मेघाः                      जल वहन करने वाले बादल
विभूतयः       समृद्धयः                  सम्पत्तियाँ
गुणयुक्तः        गुणवान्, गुणसम्पन्नः गुणों से युक्त
अगुणै:          गुणरहितैः                गुणहीनों से
आरम्भगुर्वी    आदौ दीर्घा              आरम्भ में लम्बी
क्षयिणी          क्षयशीला                घटती स्वभाव वाली
वृद्धिमती        वृद्धिम् उपगता          लम्बी होती हुई, लम्बी हुई
पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना      पूर्वार्द्धेन परार्द्धेन च पृथग्भूता           पूर्वाह्ण और अपराह्ण (छाया) की तरह अलगअलग
खलसज्जनानाम्       दुर्जनसुजनानाम्                            दुष्टों और सज्जनों की
महीमण्डलमण्डनाय   पृथिवीमण्डलालङ्करणाय             पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए
मरालैः                    हंसैः                                          हंसों से
विप्रयोगः                वियोगः                                      अलग होना
गुणज्ञेषु                   गुणज्ञातृषु जनेषु                            गुणों को जानने वालों में
आस्वाघतोयाः         स्वादनीयजलसम्पन्नाः                  स्वादयुक्त जल वाली
आसाघ                  प्राप्य                                         पाकर
अपेयाः                   न पेयाः, न पानयोग्याः                    न पीने योग्य


अभ्यासः
1. अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(क) यत्नेन किं रक्षेत् वित्तं वृत्तं वा?
(ख) अस्माभिः (किं न समाचरेत्) कीदृशम् आचरणं न कर्त्तव्यम्?
(ग) जन्तवः केन विधिना तुष्यन्ति?
(घ) पुरुषै: किमर्थं प्रयत्नः कर्तव्यः?
(ङ) सज्जनानां मैत्री कीदृशी भवति?
(च) सरोवराणां हानिः कदा भवति?
(छ) नघाः जलं कदा अपेयं भवति?

2. स्तम्भे विशेषणानि ट्टखस्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि, तानि यथोचितं योजयत
स्तम्भः                      स्तम्भः
(क) आस्वाघतोयाः            (1) खलानां मैत्री
(ख) गुणयुक्तः                    (2) सज्जनानां मैत्री
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना      (3) नघः
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना       (4) दरिद्रः
3. अधोलिखितयोः श्लोकद्वयोः आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत
(क)    आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
          लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
          दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
          छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
(ख)    प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
          तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
4. अधोलिखितपदेभ्यः भिन्नप्रकृतिकं पदं चित्वा लिखत
(क) वक्तव्यम्, कर्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
(ख) यत्नेन, वचने, प्रियवाक्यप्रदानेन, मरालेन।
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्, धनवताम्, क्षम्यताम्।
(घ) जन्तवः, नघः, विभूतयः, परितः।
5. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत
(क) वृत्ततः क्षीणः हतः भवति।
(ख) धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
(ग) वृक्षाः फलं न खादन्ति।
(घ) खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
6. अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत
यथासः पाठं पठति। सः पाठं पठतु।
(क) नघः आस्वाघतोयाः सन्ति। — .....................
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। — .....................
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि। — .....................
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति। — .....................
(ङ) अहं परोपकाराय कार्यं करोमि। — .....................
7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकेषु दत्तेषु शब्देषु उचितां विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
यथातेषां मरालैः सह विप्रयोगः भवति। (मराल)
(क) .................. सह छात्रः शोधकार्यं करोति। (अध्यापक)
(ख) .................. सह पुत्रः आपणं गतवान्। (पितृ)
(ग) किं त्वम् .................. सह मन्दिरं गच्छसि? (मुनि)
(घ) बालः .................. सह खेलितुं गच्छति। (मित्र)
परियोजनाकार्यम्
(क) परोपकारविषयकं श्लोकद्वयम् अन्विष्य स्मृत्वा च कक्षायां सस्वरं पठ।
(ख) नद्या: एकं सुन्दरं चित्रं निर्माय संकलय्य वा वर्णयत यत् तस्याः तीरे मनुष्याः पशवः खगाश्च निर्विघ्नं जलं पिबन्ति।

योग्यताविस्तारः
संस्कृतसाहित्य में सारगर्भित, लौकिक, पारलौकिक एवं नैतिकमूल्यों वाले सुभाषितों की बहुलता है
जो देखने में छोटे प्रतीत होते हैं किन्तु गम्भीर भाव वाले होते हैं। मानवजीवन में इनका अतीव महत्त्व
है।
भावविस्तारः
(क) आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नघः समुद्रमासाघ भवन्त्यपेयाः।
खारे समुद्र में मिलने पर स्वादिष्ट जलवाली नदियों का जल अपेय हो जाता है। इसी भावसाम्य  के आधार पर कहा गया है कि संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति।
(ख) छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।
दुष्ट व्यक्ति मित्रता करता है और सज्जन व्यक्ति भी मित्रता करता है। परन्तु दोनों की मैत्री, दिन के पूर्वार्द्ध एवं परार्द्ध कालीन छाया की भाँति होती है। वास्तव में दुष्ट व्यक्ति की मैत्री के लिए श्लोक का प्रथम चरण आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेणकहा गया है तथा सज्जन की मैत्री के लिए द्वितीय चरण ट्टलघ्वीपुरा वृद्धिमती च पश्चात्कहा गया है।
भाषिकविस्तारः
(1) वित्ततः वित्त शब्द से तसिल् प्रत्यय किया गया है। पंचमी विभक्ति के अर्थ में लगने वाले तसिल् प्रत्यय का तः ही शेष रहता है। उदाहरणार्थसागर + तसिल् = सागरतः, प्रयाग + तसिल् = प्रयागतः, देहली + तसिल् = देहलीतः आदि। इसी प्रकार वृत्ततः शब्द में भी तसिल् प्रत्यय लगा करके वृत्ततः शब्द बनाया गया है।
समाचरेत् सम् + आङ् + चर् + विधिलिङ् + प्रथमपुरुष + एकवचन
तुष्यन्ति तुष् + लट्लकार + प्रथमपुरुष + बहुवचन
संरक्षेत् सम् + रक्ष् + विधिलिङ् + प्रथमपुरुष + एकवचन
हतः हन् + क्त प्रत्यय (पुंल्लिङ्ग प्र.वि.ए.व.)
(2) उपसर्ग क्रिया के पूर्व जुड़ने वाले प्र, परा आदि शब्दों को उपसर्ग कहा जाता है। इन उपसर्गों के जुड़ने से क्रिया के अर्थ में परिवर्तन आ जाता है। जैसेहृधातु से उपसर्गों का योग होने पर निम्नलिखित रूप बनते हैं
प्र + हृ प्रहरति, प्रहार (हमला करना)
वि + हृ विहरति, विहार (भ्रमण करना)
उप + हृ उपहरति, उपहार (भेंट देना)
सम् + हृ संहरति, संहार (मारना)
(3) शब्दों को स्त्रीलिङ्ग में परिवर्तित करने के लिए स्त्री प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों में टाप् व ङीप् मुख्य हैं।
जैसे बाल + टाप् बाला
अध्यापक + टाप् अध्यापिका
लघु + ङीप् लघ्वी
गुरु + ङीप् गुर्वी
साधु + ङीप् साध्वी

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