Chapter – 12 द्वादशः पाठः जीवनं विभवं विना Dwadash Paatha: Jeevanam Vibhavam Vinaa NCERT Shemushi Class X (Subject Code-122)
द्वादशः पाठः
जीवनं विभवं विना
प्रस्तुत पाठ जनजीवन से सम्बद्ध कुछ रोचक एवं मार्मिक पघों
का संकलन है। इनमें जनसामान्य विशेषतः दरिद्र लोगों की पीड़ा से द्रवीभूत कवियों के
उद्गार हैं। इन श्लोकों में दरिद्रता का अत्यन्त मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है।
सक्तून् शोचति सम्प्लुतान् प्रतिकरोत्याक्रन्दतो बालकान्
प्रत्युत्सिञ्चति कर्परेण सलिलं शय्यातृणं रक्षति।
दत्वा मूर्धनि शीर्णशूर्पशकलं जीर्णे गृहे व्याकुला
किं तद् यन्न करोति दुःखगृहिणी देवे भृशं वर्षति ।।1।।
अघाशनं शिशुजनस्य बलेन जातं
श्वो वा कथं नु भवितेति विचिन्तयन्ती।
इत्यश्रुपातमलिनीकृतगण्डदेशा
नैच्छद् दरिद्रगृहिणी रजनीविरामम् ।।2।।
प्रायो दरिद्रशिशवः परमन्दिराणां
द्वारेषु दत्तकरपल्लवलीनदेहाः।
लज्जानिगूढवचसो बत भोक्तुकामा
भोक्तारमर्धनयनेन विलोकयन्ति ।।3।।
कन्थाखण्डमिदं प्रयच्छ यदि वा स्वाङे गृहाणार्भकं, क्
रिक्तं भूतलमत्र नाथ भवतः पृष्ठे पलालोच्चयः।
दम्पत्योर्निशिजल्पतोरितिवचः श्रुत्वैव चौरस्तदा
लब्धं कर्पटमन्यतस्तदुपरि क्षिप्त्वा रुदन्निर्गतः ।।4।।
हसति हसति स्वामिन्युच्चै रुदत्यपि रोदिति
कृतपरिकरः स्वेदोद्गारं प्रधावति धावति।
गुणसमुदितं दोषोपेतं प्रनिन्दति निन्दति
धनलवपरिक्रीतो भृत्यः प्रनृत्यति नृत्यति ।।5।।
रात्रौ जानुर्दिवा भानुः कृशानुः सन्ध्ययोर्द्वयोः
इत्थं शीतं मया नीतं जानुभानुकृशानुभिः ।।6।।
शब्दार्थाः
सक्तून् — भूर्जितस्य चणकस्य चूर्णम् — सत्तू को
शोचति — चिन्तयति — चिंता करती है
सम्प्लुतान् — आर्द्रान् — भीगे हुए को
आक्रन्दतो — क्रन्दनं कुर्वत् — रोते हुए को
प्रतिकरोति — शाम्यति — चुप कराती है
कर्परेण — भग्न पात्नेण — टूटे बर्तन के टुकड़े से
प्रत्युत्सिञ्चति — शोषयति — सुखाती है/उलीच रही है
सलिलम् — जलम् — जल को
शय्यातृणम् — तृणौः निर्मितां शय्याम् — पुआल का बना
बिस्तर
मूर्धनि — शिरसि — सिर पर
शीर्णशूर्पशकलम् — जीर्णशूर्पखण्डम् — टूटे—फूटे सूप के
टुकड़े को
जीर्णे — प्राचीने — पुराने
भृशं — अत्यन्तम् — अत्यधिक
अशनम् — भोजनम् — भोजन
मलिनीकृतगण्डदेशा — मलिनकपोलप्रदेशाः — जिसके गाल मलिन
हो गए हैं।
रजनीविरामम् — राङ्क्षाः अन्ते — रात्रि की समाप्ति
परमन्दिराणाम् — परभवनानाम् — दूसरों के घरों का
दत्तकरपल्लनलीनदेहाः — निहितकरकिसलयगोपितकायाः — हथेली से मुख
छिपाए हुए
लज्जानिगूढवचसः — लज्जाविवृतशब्दाः — लज्जावश
जिसके वचन नहीं निकल रहे
अर्धनयनेन — अर्धनिमीलितनेत्रेण — अधमुँदी आँखों से
भोक्तारम् — भोजनं कुर्वाणं — भोजन करने
वालों को
विलोकयन्ति — पश्यन्ति — देखते हैं
कन्था — जीर्णवस्त्नेण निर्मितं आस्तरणम् — कथरी
प्रयच्छ — देहि — दो
स्वाडके — स्वक्रोडे — अपनी गोद में
अर्भकम् — बालम् — बच्चे को
भूतलम् — भूमितलम् — धरती
पलालोच्चयः — पलालसंग्रहः — पुआल का ढेर
दम्पत्योः — पति—पत्न्योः — पति—पत्नी की
निशि — रात्रौ — रात में
जल्पतोः — गल्पतोः — बात करते हुए (दो को)
कर्पटम् — जीर्णवस्त्रम् — चादर, जीर्णशीर्ण कपड़ा
निर्गतः — बहिर्गतः — निकल गया
परिकरः — कटिभागम् — कमर
स्वेदोद्गारम् — स्वेदस्य श्रमविन्दोः उद्गारम् — पसीने का
निकलना
दोषोपेतम् — दोषसहितम्/निर्गमनम् — दोषमुक्त
धनलवपरिक्रीतः — अल्पधनेनक्रीतः — थोड़े धन से
खरीदा हुआ
भृत्यः — परिचारकः — नौकर
जानुः — शरीरावयवविशेषः — घुटना
भानुः — रविः — सूर्य
कृशानुः — पावकः — अग्नि
अन्वयाः
1. देवे भृशं वर्षति (सति) जीर्णे गृहे व्याकुला
दुःखगृहिणी शीर्णशूर्पशकलं मूर्धनि दत्वा तत् किं यत् न करोति-
सम्प्लुतान् सक्तून् शोचति आक्रन्दतः बालकान् प्रतिकरोति
कर्परेण सलिलं प्रत्युत्सिञ्चति शय्यातृणं (च) रक्षति।
2. अघ बलेन शिशुजनस्य अशनं जातम् श्वः कथं वा नु
भविता इति विचिन्तयन्ती अश्रुपातमलिनीकृतगण्डदेशा दरिद्रगृहिणी रजनीविरामं न
ऐच्छत्।
3. बत् प्रायः परमन्दिराणां द्वारेषु
दत्तकरपल्लवलीनदेहाः लज्जानिगूढवचसः भोक्तुकामा दरिद्रशिशवः भोक्तारम् अर्धनयनेन
विलोकयन्ति।
4. हे नाथ! इदं कन्थाखडं प्रयच्छ, यदि वा
स्वाटे (स्वस्य क्रोंडे) अर्भकं (शिशुं) गृहाण, अत्र भूतलं रिक्तं भवतः पृष्ठे पलालोच्चयः।
निशि जल्पतोः दम्पत्योः इति वचः श्रुत्वा एव तदा अन्यतः लब्धं कर्पटम् तदुपरि
क्षिप्त्वा रुदन् चौरः निर्गतः।
5. धनलवपरिक्रीतः भृत्यः स्वामिनि हसति हसति
(स्वामिनि), रुदति उच्चैः रोदिति, धावति कृतपरिकरः स्वेदोद्गारं प्रधावति
गुणसमुदितं दोषोपेतं (वा) निन्दति प्रनिन्दति, नृत्यति प्रनृत्यति।
6. रात्रौ जानुः दिवा भानुः द्वयोः सन्ध्ययोः
(प्रातः सायञ्च) कृशानुः - इत्थं जानु भानुकृशानुभिः मया शीतं नीतम्।
हिन्दी अर्थ
1. इन्द्र देव के अत्यधिक वर्षा करने पर परेशान
गृहिणी टूटे सूप के टूकड़े को सिर पर लेकर क्या ऐसा है जो नहीं करती। (विकलतावश
सबकुछ करती है)-भीगे हुए सत्तू की चिंता करती है, रोते हुए
बच्चों को चुप कराती है, टूटे बर्तन के टुकड़े से पानी उलीचकर बाहर फेंकती
है, तृण के बने
बिस्तर (पुआल के बिस्तर) की रक्षा करती है।
2. आज तो प्रयत्नपूर्वक बच्चों का भोजन हो गया, कल किस
प्रकार उनका भोजन हो पाएगा, यह सोचती हुई, रोने से जिसके गाल मलिन हो गए हैं ऐसी गरीब
की पत्नी नहीं चाहती है कि रात बीते।
3. प्रायः दूसरों के घरों के दरवाजे पर दोनों
हाथ रखकर जिसके कारण उनका शरीर छिप गया है और वचन लज्जावश निगूढ़ हो गए हैं (छिप गए
हैं), आवाज नहीं
निकल पाती। खेद है भोजन की इच्छा रखने वाले गरीबों के ऐसे बच्चे (खाने वालों को)
अधखुली आँखों से अर्थात् टकटकी लगा कर देख रहे हैं।
4. मुझे यह कन्थाखंड (कथरी का टुकड़ा) दे दो या
अपनी गोद में (मेरे) बच्चे को ले लो (क्योंकि) यहाँ धरती खाली है (जमीन पर बिस्तर
नहीं है) तुम्हारी पीठ के नीचे पुआल का ढेर है-इस प्रकार रात्रि में पति—पत्नी की
बातचीत सुनकर दूसरे (घर) से प्राप्त चादर को उसके ऊपर फेंककर रोता हुआ चोर निकल
गया।
5. अत्यल्प धन से खरीदे हुए नौकर मालिक के हँसने
पर हँसते हैं, रोने पर जोर से रोते हैं, स्वामी के दौड़ने पर जोर से कमर पर हाथ रख कर
पसीना निकालते हुए दौड़ते हैं, गुणवान् हो या दोषरहित (स्वामी के) निन्दा
करने पर अधिक निन्दा करते हैं, (उनके) नाचने पर जोर से नाचते हैं।
6. मेरे द्वारा रात घुटनों के सहारे, दिन सूर्य
(की गर्मी) के सहारे दोनों सन्ध्यायें अग्नि के सहारे बिताई गई। इस प्रकार घुटने, सूर्य और
अग्नि के सहारे जाड़े के दिन बिताए।
अभ्यासः
1. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) दरिद्रगृहिणी रजनीविरामं किमर्थं नेच्छति?
(ख) परमन्दिराणां द्वारेषु के विलोकयन्ति?
(ग) चौरः किं श्रुत्वा रुदन्निर्गतः?
(घ) स्वामिनि हसति कः हसति?
(ङ) देवे भृशं वर्षति सति दुखःगृहिणी किं
करोति?
2. रेखाङिक्तपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(क) भृत्यः स्वामिनि रोदिति रोदिति।
(ख) शिशुजनस्य अघ अशनं जातम्।
(ग) शिशवः अर्धनयनेन विलोकयन्ति।
(घ) माता आक्रन्दतः बालकान् प्रतिकरोति।
(ङ) चौरः कर्पटम् क्षिप्त्वा निर्गतः।
3. संधिं/विच्छेदं वा कुरुत-
(क)यन्न .................... +
.................... ।
(ख) नेच्छत् .................... +
.................... ।
(ग) .................... — स्व +
अङक्े।
(घ) .................... — श्रुत्वा +
एव।
(ङ) दोषोपेतम् —
.................... + .................... ।
4. अनेकेषां शब्दानां कृते समुचितम् एकपदं (समस्तपदं) लिखत-
(क) धनलवेन परिकीतः - ....................
(ख) लज्जया निगूढ़ाः वचांसि येषाम् तेषाम् - ....................
(ग) अश्रुपातेन मलिनीकृतः गण्डदेशः यस्याः सा - ....................
(घ) कृतः परिकरःयेन सः - ....................
5. पाठमाधृत्य अधोलिखितान्वये रिक्तस्थानानि पूरयत—
धनलवपरिक्रीतः भृत्यः स्वामिनि .............. हसति
(स्वामिनि) रोदिति .............. धावति .............. स्वेदोद्गारं प्रधावति गुणसमुदितं दोषोपेतं
वा निन्दति .............. नृत्यति ..............।
6. अधोलिखितान् पदान् प्रयुज्य संस्कृतेन वाक्यरचनां कुरुत-
(क)शिशवः ....................
(ख) भानुः ....................
(ग) सलिलम् ....................
(घ) रजनी ....................
(ङ) गृहिणी ....................
7. मूलधातुं पुरुषं वचनं च लिखत-
धातु पुरुष वचन
(क)शोचति ....... ....... .......
(ख) वर्षति ....... ....... .......
(ग) रोदिति ....... ....... .......
(घ) धावति ....... ....... .......
(ङ) नृत्यति ....... ....... ......
परियोजनाकार्यम्
1. दारिद्रयं पीडादायकं भवति इति मत्वा
दारिद्र्यनिवारणाय प्रयत्नः कर्त्तव्यः दारिद्रयम् निन्दनीयम् वा?-स्वविचारान् स्वभाषया लिखत।
2. त्वं कस्यापि निर्धनछात्रस्य सहायतां कथं
करिष्यसि—स्वभाषया
लिखत।
योग्यताविस्तारः
संस्कृत साहित्य की विकास यात्रा में वेद से लेकर अघावधि एक
सक्रिय काव्यपरंपरा चल रही है, जिसे हम लोकधर्मी काव्य कहते हैं। यह काव्य
परंपरा राजसभा की संकरी दुनिया के बाहर भारतीय जनता के विराट संसार से उपजी थी।
कुछ अनाम और अनजाने कवि दरबार की विलासिता और चाकचिक्य कामिनी का सौंदर्यविलास या
भक्ति की शान्त सरिता में अवगाहन से अलग हटकर सामान्य जन—जीवन में
आने वाली समस्याएँ, उनसे जूझते लोगों की दुरवस्थाओं का यथार्थ
वर्णन करते रहे हैं और उनके माध्यम से तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों
का यथातथ्य चित्रण करते रहे हैं। इस तरह के कुछ श्लोक पठितव्य हैं-
1. कदाचित् कष्टेन द्रविणमधमाराधनवशा —
न्मया लब्धं स्तोकं निहितमवनौ तस्करवशात्
ततो नित्ये कश्चिद्दधदपि तदाखुर्बिलगृहे
नयल्लब्धोऽप्यर्थो न भवति यदा कर्मविषमम् ।।
2. एते दरिद्रशिशवस्तनुजीर्णकन्थां
स्कन्धे निधाय मलिनां पुलकाकुला
सूर्यस्फुरत्करकदम्बितभित्तिदेश
लाभाय शीतसमये कलिमाचरन्ति ।
3. लग्नः शृङ्गयुगे गृही सतनयो वृध्दौ
गुरूपार्श्वयोः ।
पुच्छाग्रे गृहिणी खुरेषु शिशवो लग्नः वधूः कम्बले ।
एकः शीर्णजरद्गवो विधिवशात् सर्वस्वभूतो गृहे
सर्वैरेव कुटुम्बकेन रुदता सुप्तः समुत्थाप्यते ।।
4. सुखं हि दुःखान्ननुभूयशोभते
घनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम्
सुखात्तु यो याति नरो दरिद्रतां
धृतः शरीरेण मृतः स जीवति।।
ध्यातव्य - महाकवि शूद्रक कृत प्रसिद्ध सामाजिक प्रकरण ‘मृच्छकटिकम्’ छात्रों को
अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें दारिद्र्य के सहज चित्रण के अतिरिक्त समाजिक
परिस्थितियों/विसंगतियों का यथार्थ चित्रण है।
तत्सम—तद्भव शब्द
तत्सम तद्भव
कन्था कथरी
अश्रु आँसू
गण्ड गाल
लज्जा लाज
पलाल पुआल
चौरः चोर
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