आंतरिक खुशी - 2 Aantarik Khushi Bhaag-2 By Avinash Ranajan Gupta
आंतरिक खुशी
गर्मी के दिन थे ए.सी. की ठंडी हवा से मेरा
तन सुख पा रहा था और अपने कमरे में मैं अपने 42 इंच के ओएलईडी (OLED) टीवी पर एक कॉमेडी शो देख रहा था और बहुत हँस रहा था। तभी एक भिखारी कुछ
पाने की आशा में दरवाजा खटखटाने लगा। मैंने खिड़की के अंदर से ही कहा, “घर में कोई आदमी नहीं है।” और उसने उत्तर दिया,
“थोड़ी देर के लिए आप ही आदमी बन जाइए।” मैं बाहर निकला उसे पानी पिलाया, उसके तृप्त चेहरे को देखकर मेरे हृदय में एक सरसराहट होने लगी, यकीन कीजिए पानी वो पी रहा था पर ठंडक मेरी आत्मा को मिल रही थी। मेरे मन
को बहुत सुख मिला। वास्तव में, भौतिकवादी (Materialistic) चीज़ें आपके तन को स्पर्श करती है और इसकी हँसी-खुशी अल्पायु होती है
परंतु इंसानियत (Humanity) और आध्यात्मिकता (Spirituality) से मिलने वाला सुख आपके मन को स्पर्श करता है और यह चिरकालिक होता है।
आज की दुनिया पूर्णत: भौतिकवादी हो गई है। इस
सच को झुठलाया नहीं जा सकता। पर इस सच के साथ अनेक ऐसी बातें हैं जिसे नज़रअंदाज़ भी
नहीं किया जा सकता। भौतिक चीजों की वजह से और इसकी लोलुपता के कारण ही आज लगभग हर
जगह अशांति का अंबार लगा हुआ है। एक समस्या अनेक समस्याओं को आमंत्रित करती है। तनाव, पारिवारिक कलह, रिश्तेदारों से मनमुटाव, स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। जैसे-जैसे
शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे मानवता का ह्रास होता जा रहा है। आज
की शिक्षा हमें अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों को जुटा लेने की
प्रतिद्वंद्विता में झोंक रही हैं जिसमें इंसानियत और आध्यात्मिकता के लिए कोई जगह
नहीं।
आज हम उन सभी लोगों से तालमेल बैठाना चाहते
हैं जो किसी न किसी रूप में समाज के ऊँचे पद पर हैं। यहाँ तक कि उनकी गलत बातों और
कामों में भी सहयोग करने पर उतारू रहते हैं। इसमें हमारा स्वार्थ कहीं-न-कहीं अदृश्य
रूप से विद्यमान रहता है जो उचित अवसर देखकर दृश्यमान हो उठता है। ऐसा करते-करते हम
कब मानुष से अमानुष हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। और जब हमें अपनी भूल का एहसास
होता है तो हम खुद को यह तसल्ली देने लगते हैं कि आज के युग में ऐसा करना ही पड़ता
है और ऐसा मैं ही नहीं बल्कि सभी कर रहे हैं। जब हमारी आत्मा हमें ज़्यादा कचोटती
है और हम सही राह पर आना भी चाहे तो हमारे अपने ही रास्ते का रोड़ा बनने लगते हैं।
डिब्बे से नए जूते निकालकर पहनने में हमें
कुछ ही देर की खुशी मिलती है और फिर वो जूता हमारे लिए पुराना हो जाता है। ठीक ऐसे
ही हमारे लिए वो सारी भौतिक चीज़ें एक दिन पुरानी पड़ जाती हैं। हमारे मन में सदा एक
बेचैनी रहती है जिसे हम भूलने के लिए तथाकथित मनोरंजन का सहारा लेते हैं पर
उस बेचैनी के कारणों को भौतिकता में उलझे
हुए मन के कारण नहीं जान पाते। भौतिकता उलझाने वाली होती है तथा इंसानियत और
आध्यात्मिकता सुलझाने वाली। उलझा हुआ मन न अपने लिए ही कुछ कर पाता है न समाज के लिए
परंतु सुलझे हुए मन के लिए भौतिक चीज़ों की अपेक्षा आत्मा की शांति कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण होती है।
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