Tulasidaas ka Janm- Ek Nai Katha By Avinash Ranjan Gupta
तुलसीदास का जन्म
शाम को आने पर घर में गृहिणी को न पाकर
रामबोला परेशान हो गया। उसे लगा हो न हो उसकी अर्धांगिनी अपने मायके चली गई है।
अपनी भार्या से अथाह प्रेम के कारण ही
समय, सुविधा, स्थान, मौसम और दूरी की चिंता किए बिना वे भी अपने ससुराल चल पड़े। अपनी बनिता के
प्रति यह उनका अनुराग ही था जिसकी वजह से उफनती नदी में शव को सहारा बनाकर और
भ्रमवश साँप को रस्सी समझकर दीवार पार किया और अपनी वामांगिनी के पास पहुँचे।
परंतु उन्हें उनकी प्रियतमा की आँखों में अपने लिए प्यार नहीं बल्कि तिरस्कार की
भावना ही दिखी। कमांध, अल्पबुद्धि,
असभ्य, चोरप्रवृत्ति नर, जैसे विशेषणों
का प्रयोग अपनी सहचरी द्वारा स्वयं के लिए किए जाने पर मध्यरात्रि में ही स्त्रीप्रेम
की तंद्रा से निवृत हुए। नदी में जिस तरह बाढ़ आ गई थी उसी तरह आत्मग्लानि से उनकी आत्मा
डूब चुकी थी और अब जीवन लीला समाप्त करने के अतिरिक्त उनके पास और कोई भी मार्ग
शेष नहीं था।
वास्तव में वे साहित्य प्रेमी थे। कथावाचन
के माध्यम जीविकोपार्जन के साथ-साथ साहित्य का अध्ययन करना भी उनका नियमित कार्य
था। उन्होंने वाल्मीकि की रामायण, कालिदास
की रघुवंशम, वात्साययन की कामसूत्र आदि साहित्य का भी
मस्तिष्क स्पर्श किया था। अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को वे साहित्य की
विविध उपयोगिताओं के बारे में बताते थे। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे साहित्य के
प्रचार-प्रसार करने वाले अवैतनिक कर्मचारी थे। शायद इसी वजह से उनकी पत्नी उनसे
रुष्ट थीं और भावावेश में आकर उन्होंने इन्हें भौतिकवादी बनाने के लिए कड़े वचनों
का प्रयोग किया था।
शायद ये भी अपनी पत्नी की मंशा समझ चुके
थे और मृत्यु की ओर बढ़ते हुए उनके मन में अनेक प्रश्नों का उत्तोलन हो रहा था। वे
साहित्य को शिव-पार्वती का योग मानते थे। साहित्य की समरसता में वे पूरी तरह
सराबोर थे और यथाशक्ति दूसरों को भी वे साहित्य के रस से आस्वादित करना चाहते थे
परंतु अपनी पत्नी का साहित्य के प्रति वैराग्य भाव देखकर उनका मन जीवन से विमुख हो उठा। उफनती नदी
के समीप पहुँचकर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने हेतु ज्यों ही उन्होंने अपना कदम
उठाया तभी नेपथ्य से एक ध्वनि सुनाई दी-
“क्या तुम्हारी आत्मा सचमुच बंधनों से
मुक्त हो गई है?”
विस्मित रामबोला इधर-उधर देखने लगा
परंतु अनेक प्रयासों के उपरांत भी ध्वनि के प्रसारण स्थान और वक्ता का संधान न कर
पाया।
“क्या तुम्हारी आत्मा सचमुच बंधनों से
मुक्त हो गई है? क्या तुम्हारी सारी
आसक्तियाँ धूमिल पड़ गईं हैं? क्या तुम जीवन का त्याग इसलिए करना चाहते हो क्योंकि तुम तिरस्कृत हुए हो? या तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु का आलिंगन ही तुम्हारी सभी
समस्याओं का एकमात्र समाधान है?”
निरीह रामबोला ने प्रश्नों के उत्तर
देते हुए कहा, “हे अदृश्य वक्ता! मैं
साहित्य का प्रशंसक और साधक हूँ, सामान्य जीवन व्यतीत करने
वाला सामान्य मानव हूँ। सरस्वती मेरे लिए सदा श्रद्धेय रही है। परंतु आज मेरा
तिरस्कार मुझे मृत्यु के मुख में प्रवेश करने के लिए बाध्य कर रहा है। मृत्यु का
वरण ही मेरे आत्मग्लानि और जीवन का अंत कर देगा।”
तुम्हारी मृत्यु मार्ग में जाने का कारण
तुम्हारी आत्मग्लानि नहीं अपितु तुम्हारी कायरता है और तुम्हारी मृत्यु उन सभी
लोगों को सही सिद्ध करेगी जिन्होंने तुम पर अविश्वास प्रकट किया था। मनुष्य के पास
सदैव एक अच्छा विकल्प रहता है और प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि जीवन की विषम
परिस्थितियों में अच्छे विकल्प का ही चयन करे। संपूर्ण रूप से मृत्यु तुम्हारे लिए
श्रेष्ठ विकल्प नहीं है।
रामबोला शांतचित्त होकर पूछने लगे, “तो मुझे क्या करना चाहिए?”
तुम साहित्य के प्रशंसक और साधक हो अब
समय है कि तुम साहित्य का सृजन करो। साहित्य की श्रेष्ठतम ऊँचाई तक पहुँचने का
निरंतर प्रयास करना ही तुम्हारे जीवन का ध्येय होना चाहिए। स्मरण रहे जीवन संतुलन
का पर्याय है जब तक जीवन में संतुलन बना रहता है तब तक संबंध, सम्मान और स्वास्थ्य सही रहते हैं। कला और कौशल की
दुनिया में श्रेष्ठतम बनना ही तुम्हारे जीवन का लक्ष्य हो।
तो क्यों न आप ही मुझे साहित्य रचने का
गुर बता दें या आप खुद ही अपने मुख से साहित्य निसृत करें और मैं उन्हें लिपिबद्ध
करता जाऊँ। इससे मुझपर जिन्होंने भी अविश्वास प्रकट किया था उन्हें भी साहित्य से
प्रीति हो जाएगी।
यह संभव नहीं, याद करो पाँच लाख साल पहले त्रेता युग में जब राम
को बनवास पर जाना हुआ तो उन्होंने भी किसी की मदद नहीं ली थी, सीता के हरण के समय भी उन्होंने न राजा जनक से और न ही अपने भाई भरत से
ही कोई सहायता माँगी थी। सुग्रीव की सहायता उन्होंने की थी पर युद्ध तो सुग्रीव को
ही बालि से लड़ना पड़ा था। द्वापर युग में कृष्ण ने भी युद्धविमुखी अर्जुन को ज्ञान देकर
उनकी सहायता की थी, स्वयं युद्ध नहीं किया था। इसी तरह यह
समस्या तुम्हारी है और संघर्ष भी तुम्हें ही करना पड़ेगा। मैं तो केवल मार्गदर्शक
की भूमिका ही निभा सकता हूँ और एक साक्षात मार्गदर्शक के रूप में किसी न किसी वेश में
मैं तुम्हारे सम्मुख ज़रूर आऊँगा। और जहाँ तक लोगों का तुम्हारे प्रति अविश्वास का
प्रश्न है, उन्हें तुम अपनी प्रगति का निमित्त मानो। उन्हें
कुदृष्टि से देखना या उनके बारे में सोचना व्यर्थ है।
परंतु, क्या मैं साहित्य सृजन कर साहित्य के साथ न्याय कर सकूँगा?
तुमने अभी तक जितने भी साहित्यकारों के
साहित्य का अध्ययन किया और यथासंभव लोगों तक उनके काव्य-सौंदर्य को पहुँचाने का
प्रयास किया इससे उन साहित्यकारों और उनके साहित्य के प्रति समुचित न्याय न हो
सका। उनके अधिकारों के प्रति जब तुम खड़े रहोगे और साहित्य सृजन की परिपाटी को अगली
पीढ़ी तक हस्तांतरित करोगे तभी साहित्य सृजन शृंखला अविच्छिन्न रहेगी और इस भावना
से ओत-प्रोत होकर साहित्य सृजन कर तुम सही अर्थों में साहित्य के साथ न्याय कर
पाओगे।
नतमस्तक होकर रामबोला बड़े मनोयोग से सब
सुन रहे थे। प्रकाश पुंज फैलने लगा था। चिड़िया चहचहाने लगी थीं। ब्रह्म मुहर्त की
बेला में ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी। वृत्ताकार सूर्य का शीर्ष भाग
तीव्र लालिमा लिए आकाश में ऊर्ध्वगामी हो रहा था। स्वर लुप्त हो चुका था परंतु प्रत्येक
शब्द रामबोला के हृदय में घर कर चुका था।
एक नया जीवन पाकर वह बहुत प्रसन्न था और
उसे सार्थक बनाने का दायित्व भी उनके मस्तिष्क में ऊर्जा का संचार कर रहा था।
गुरु के रूप में उन्हें नरहरिदास मिले। नेपथ्य
से आने वाले स्वर की सत्यता का प्रमाण उन्हें मिल गया। उनकी सेवा और सान्निध्य में उन्होंने काव्य शिक्षा ली
और साहित्य सृजन में लग गए। अपनी एक रचना में उन्होंने लिखा है
“ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब तारण के अधिकारी”
आम लोग इसका अर्थ ये निकलते हैं कि ढोलक, शुद्र वर्ण के लोग, पशु और
नारी इन सबको मारने से ही ये नियंत्रण में रहते हैं। जबकि इसका अर्थ है- ढोलक, शुद्र वर्ण के लोग, पशु और नारी इन सबको समझने की
आवश्यकता है। इन्हें समझने से ही ढोलक से आवाज़ की जगह स्वर निकलते हैं, शुद्र वर्ण के लोगों में निहित
मनुष्यता का भान होता है, पशु के आचरण और कार्य-प्रणाली
को समझा जा सकता है और अपनी भार्या के साथ मधुर संबंध स्थापित हो सकता है। इन
उदाहरणों से तुलसीदास ने जीवन के विविध पक्षों में समझ और संतुलन का जो उपमान
प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
इनकी राम भक्ति और काव्य रचना की
पराकाष्ठा के कारण ही हिंदी साहित्य की परिपाटी को आगे बढ़ाने वालों ने हिंदी
साहित्य में भक्ति रस का समावेश किया। इनकी कृतियों की प्रसिद्धि ने ही तुलसीदास
का जन्म दिया और सदियाँ बीत जाने के बाद भी वे अभी तक जीवित ही हैं।
इनकी प्रशंसा
में लिखा भी गया है-
“कविता कर तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।”
अर्थात्, काव्य की रचना कर कर तुलसीदास प्रसिद्ध नहीं हुए अपितु तुलसीदास ने काव्य
की रचना की इसलिए काव्य प्रसिद्ध हुआ है।
अविनाश रंजन गुप्ता
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