Skul Ka Prem Singapur Tak By Avinash Ranjan Gupta


स्कूल का प्रेम सिंगापुर तक
          “क्लास 8, मास्टर अर्णव कुमार, आप मंच पर आएँ।” श्रीमती लेहा ने लगभग तीन बार मेरा नाम पुकारा तब जाकर मेरे बगल के एक छात्र ने झकझोरते हुए मुझे यादों से बाहर निकाला और सचेत होते ही चल रहे भाषण प्रतियोगिता में अपना भाषण देने के लिए मैं झट-पट मंच की ओर बढ़ा।  
          मैडम कुछ कहतीं उससे पहले ही मैंने उनसे शॉरी कह दिया और माइक के पास जाकर भाषण देना शुरू कर दिया। बॉडी लैंग्वेज़ के साथ-साथ मेरी आँखें भी मूवमेंट कर रही थीं। प्रयास सफल हुआ मेरी बिना चश्मे वाली आँखों ने उस चश्मे पहनीं आँखों को ढूँढ़ ही लिया और मेरी नज़रें वहीं टिक गईं। वह भी मेरी तरफ ही देख रही थी, मेरा भाषण ध्यान से सुन रही थी और उसकी सहेली जब उसे कुछ कहना चाह रही थी तो बिना उसकी तरफ़ देखे हाथ से रुकने का इशारा कर रही थी। शायद मुझे यही लगा कि वह मान चुकी है कि मेरा भाषण उसके भाषण से बेहतर है और अब वह भाषण प्रतियोगिता में अपना स्थान निर्धारण कर रही है। मन तो मेरा चाह रहा था कि प्रथम स्थान उसे ही प्राप्त हो पर दिमाग बार-बार यही कह रहा था कि जब बड़े झुकते हैं तो वे सचमुच बड़े बन जाते हैं। परिणाम घोषित किए गए मैं प्रथम आया और वह द्वितीय स्थान पर।
          अभीप्सा उस लड़की का नाम, कक्षा सातवीं, क्रमांक-1। उसके बारे में इतनी ही जानकारी मेरे लिए पर्याप्त थी। प्रार्थना सभा में मैं अधिकतर उसे देख लिया करता था। उसे तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं होगा कि कोई उसे इतना पसंद करने लगा है।
इत्तफाक से परीक्षाओं के समय उसके और मेरे सीट आगे-पीछे निकले। इसकी वजह जो भी हो पर मैंने इसे ऊपरवाले की प्री-प्लांड प्लेनिंग समझ ली। हर खुशी के साथ-साथ उस खुशी के ग्रहण की आशंका भी होती है। मेरे मन में यह डर था कि परीक्षा के दौरान अगर उसे किसी सवाल का जवाब नहीं आया तो पूछने के लिए अगर उसने मुझे भैया कहकर संबोधित कर दिया तो मेरे सारे सुनहरे सपने मलिन हो जाएँगे। शंका की समाप्ति के लिए ठोस कदम उठाए जाते हैं, मैंने भी वैसा ही किया और उसकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कहा, “मेरा नाम अर्णव कुमार है, मैं कक्षा आठवीं में पढ़ता हूँ और इसी साल इस स्कूल में दाखिला लिया है। आपने उस दिन बहुत ही अच्छा भाषण दिया था।” वो कुछ बोलने ही वाली थी कि अचानक उसकी आँखें बड़ी और ध्यान दरवाजे से एंटर करते हुए परीक्षक पर पड़ी।        
          परीक्षा चल रही थी। मगर पूरे परीक्षा के दौरान न तो उसने किसी से कोई जवाब पूछा न ही किसी ने उससे। ऐसा मेरे साथ भी होता है इसलिए मुझे अच्छा लगा। परीक्षा समाप्त हुई मैंने उससे पूछा, “आपका पेपर कैसा गया?” “अच्छा” मुस्कराते हुए उसने कहा। उसने भी मुझसे पूछा आपका पेपर कैसा गया, “मेरे हिसाब तो तो अच्छा ही गया बाकी जब पेपर दिखाया जाएगा तब ही पता चलेगा।” मैंने उससे अंतिम वाक्य के रूप में बस इतना ही कहा कि आप मुझे अर्णव कहकर पुकार सकती हैं। यह सुनकर वो मुस्कराई और चली गई।
         
          अब जब भी हम कहीं भी एक-दूसरे को देखते तो मुस्कराकर एक दूसरे का अभिवादन करते। हम दोनों की ये मुस्कराहट कुछ अलग ही होती थी। देखते-देखते वार्षिक परीक्षाएँ शुरू हो गईं। पर पहली बार की तरह इस बार हम साथ-साथ नहीं अलग-अलग बैठे थे। सालाना इम्तिहान समाप्त हुआ। स्कूल के वार्षिक समारोह में मुझे और उसे दोनों को अपनी-अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने हेतु मंच पर ससम्मान बुलाकर पुरस्कृत किया गया। नया सत्र शुरू हो चुका था। मैं नवम श्रेणी में और वो आठवीं में पहुँच चुकी थी। मैंने उसके बिना माँगे ही अपने सारे विषयों के नोट्स उसे दे दिए। वह आश्चर्यचकित तो थी पर खुश भी, मानो वो भी ऐसा ही चाह रही थी। उसने इस बात की पुष्टि भी की कि मैं आपसे नोट्स माँगने ही वाली थी। उसने मुझसे यह भी कहा कि मुझे आपके हैल्प की ज़रूरत पड़ेगी। माँगनेवाले से पहले ही जब देनेवाला उसकी मनचाही चीज़ दे दे तो वह सचमुच महान बन जाता है। उसने मुझे थैंक्यू कहा और अपने क्लास की ओर जाने लगी। साहित्य के शिक्षक का मुझपर कुछ ज़्यादा ही असर था इसलिए मैंने उसे रोक कर यह कह ही दिया, “मैं चाहता हूँ कि आप हक से मुझसे चीज़ें और मदद माँगा करें जिसमें थैंक्यू और शॉरी के लिए कोई भी जगह न हो और तो और मैं यह भी चाहता हूँ कि आपकी मदद आजीवन करता रहूँ।” क्या यह संभव है? आलंकारिक भाषा वो भी समझती थी। और ऐसी बातों का मतलब इंग्लिश स्कूल के छात्रों के लिए समझ पाना कोई भी मुश्किल नहीं है। उसकी नज़रें नीची हो गईं, तभी घंटी बजी और और वह अपने क्लास में चली गई। मैं उसे जाते हुए देखा और फिर मैं भी अपने क्लास में दौड़कर चला गया क्योंकि साहित्य की क्लास थी।  
          अब जब भी वह मुझे आते देखती तो न देखने जैसा करती या सामान्य स्थिति से असामान्य स्थिति में आ जाती जैसे हँसते हुए अचानक शांत हो जाना, सकते में आ जाना, मुड़ जाना। कुछ ही दिनों के बाद मेरा जन्मदिन आया। चॉकलेट देते हुए मैंने उससे कहा, “प्रेम बंधन की वस्तु नहीं वरन् स्वतंत्रता का द्योतक है। न ही मैं तुम्हें कभी बाँधने की कोशिश करूँगा और न ही तुम कभी छूटने की। अगर आपको मेरा प्रस्ताव पसंद नहीं है तो आप पहले जैसे रहते थे वैसे ही रहिए, परंतु मुझे हर बार यही लगता है कि आपको मेरा प्रस्ताव पसंद हैं और इसलिए आप मुझे देखकर अनावश्यक क्रियाएँ शुरू कर देती हैं। आप मेरे साथ होंगी तब भी मैं आपको कस्टोमाइज़ कभी नहीं करूँगा क्योंकि मैंने आपको ऐसे ही पसंद किया है।” शायद वह ये कथन मेरे मुँह से सुनना चाहती थी। उसकी मुस्कराहट से मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया। बिना किसी प्रेम-विज्ञापन के मैं दसवीं मैं और वह नवीं में पहुँच गई।
          किसी ने कहा भी है कि सत्संगति का असर बहुत ही अच्छा होता है। मेरी खेल-कूद में कोई खास रुचि नहीं थी पर उसे इनमें बहुत दिलचस्पी थी। मैंने भी वार्षिक क्रीड़ा प्रतियोगिता में भाग लिया और कुछ खेलों में उम्दा प्रदर्शन कर मेडल प्राप्त किए। उसने भी मुझसे प्रेरित होकर अपने गायन प्रतिभा का निखार किया। हम दोनों अपने जीवन में एक-दूसरे की उपस्थिति से काफी भरे-भरे और लाभान्वित महसूस कर रहे थे जिससे रिश्ते की मज़बूती प्रत्येक दिन बढ़ती ही जा रही थी।
          कक्षा दसवीं में मुझे 96% अंक मिले और इस वर्ष मेरे पिताजी का तबादला भोपाल हो गया। अपनी अधूरी प्रेम-यात्रा को पूरी करने के लिए मैं सपरिवार भोपाल चला गया और वह भुवनेश्वर में ही रह गई। जाने से पहले आँखें नम तो थीं पर मैंने उससे इतना ही कहा था कि बिछड़ाव किसी भी रिश्ते को या तो मज़बूत बना देता है या फिर समाप्त कर देता है। मैं आपको अपनी आँखों में समेटे जा रहा हूँ। आप हमेशा मेरे पास रहेंगी। अभी हमें अपने भावी जीवन को समृद्ध करने के लिए प्रयत्न करना है। हमलोग सिर्फ फेसबूक में ही मिलेंगे वो भी बिना किसी फ़िक्स टाइम के। न ही मैं तुमसे तुम्हारा फोन नंबर माँगूँगा और न ही तुम्हें अपना फोन नंबर दूँगा। “आई लव यू, अभीप्सा” मैंने इज़हार भी बिछड़ाव के दिन ही किया।
          मैं भोपाल चला गया। हमारी बातचीत फेसबूक के माध्यम से होती रहती थी। उसने मुझे कई बार कुछ ऐसे मैसेज भी किए जिसमें उसने लड़कों की इज्ज़त का फ़ालूदा निकाला था। लड़के ये साधारण-सी बात क्यों नहीं समझते कि कोई भी लड़की उस लड़के को ही पसंद करती है जो उनसे हर मायनों जैसे- गुण, विद्या, बुद्धि, आचरण में आगे हो। खैर यह तो आत्ममंथन का विषय है, जिसके लिए आज के लड़को और युवाओं के पास समय नहीं।
          इन दो वर्षों में हमारे रिजल्ट 90% से अधिक ही रहे। हमारे परिवार के सदस्यों को इस बात का भान भी नहीं था कि हम दोनों प्रेम में पड़े हुए हैं। उनका तो यह मानना है कि जो प्यार में पड़ा वह हर चीज़ से गया। हमारे साथ ऐसा नहीं था। We have fallen in love मेरा मतलब है हम प्यार में गिरे नहीं थे बल्कि We have risen in love हम प्यार में ऊपर उठ रहे थे। हमने अभी तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया था जिससे हमारे पवित्र प्रेम  को लज्जित होना पड़े।
          12वीं की परीक्षा पास करने के बाद मैंने जेएनयू दिल्ली में दाखिला लिया और अगले साल मैंने उसकी प्रतिभा को सही स्थान पर पहुँचाने का सफल प्रयास करते हुए उसका दाखिला भी जेएनयू दिल्ली में करवा दिया। हालाँकि, उसके घरवाले इसके लिए कभी भी राज़ी नहीं होते अगर अभीप्सा ने 91% अंक न पाए होते तो। पूरे तीन सालों के बाद हमने एक-दूसरे को आमे-सामने देखा और देखते ही रह गए। मेरे अनुभव ने उसके दाखिले और रहने के तौर-तरीकों में काफी मदद की। इस बार मैंने उसे अपना नंबर दिया और उससे उसका नंबर लिया, कारण यह था कि वह अपने घर से 2500 KM दूर है और मेरे अलावा दिल्ली में उसका परम-हितैषी और कोई भी नहीं।
          दिल्ली जैसे शहर में जहाँ आधुनिकता पैर तोड़कर बैठ गई है, हॉट पैंट, जींस और स्लीवलेस की भरमार है, वहाँ भी उसने सलवार-कुर्ती की परंपरा का ही पालन किया। पहरावे की आधुनिकता के प्रदर्शन को वरीयता न देकर वह ज्ञान अर्जन को वरीयता दिया करती थी। उसने अपने पूरे सत्र में सबसे ज़्यादा संगोष्ठियों (Seminars) में शिरकत की। इधर मैं भी पूरे मनोयोग से अपनी पढ़ाई कर रहा था। अपने पूरे सत्र में हमने कभी भी फोन पर अनावश्यक बातें नहीं की। हमारी बातें या तो परिवार के सदस्यों से जुड़ी होती थीं या फिर पढ़ाई-लिखाई से। आपके जानकारी के लिए बता दूँ कि हमने न तो कभी कोई रोमांटिक बातें ही की और न ही रोमांस क्योंकि हम दोनों का यह मानना है कि हर चीज़ के लिए एक निर्धारित समय और जगह होती है। ऐसी बातें और क्रियाएँ मन को दूषित करती है और कामुक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती हैं, रिश्तों को खोखला करती हैं और फलस्वरूप सारे किए कराए पर पानी फिर जाता है।
          हम दोनों के अच्छे अंकों का सिलसिला यहाँ भी जारी रहा। संयमित और संतुलित तरीके से मेरे पाँच साल और उसके चार साल गुज़र गए। अपने पाँचवे साल में ही मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के लिए आवेदन किया और मन लगाकर पढ़ना शुरू किया। अच्छे कामों में मदद मिल ही जाती है। मेरे सीनियर्स ने भी मेरी मदद की और मुझे कुछ उपयोगी नोट्स दिए। तभी मुझे इस बात का भी बोध हुआ कि सुपात्र को दान मिल ही जाता है। इरादे नेक हो और मन में उत्साह हो तो मंजिल दूर नहीं रहती।
          हमारी खुशी का ठिकाना न रहा, मेरी मेहनत और सीनियर्स की हैल्प रंग लाई। मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली और ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया। उसने भी अपनी पढ़ाई पूरी करकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) की परीक्षा की तैयारियों में लग गई। मैं भी उसे यदा-कदा तैयारियों की विधियाँ बताता रहता था। परीक्षाएँ हुई और उसने भी भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) की परीक्षा पास कर ली और आईएफ़एस (IFS) के लिए चयनित हुई। उसे बधाइयाँ देते-देते पता ही नहीं चला कि कब डेढ़ घंटे बीत गए। एक लंबे अरसे के बाद हमने फोन पर डेढ़ घंटे बातचीत की।
          आज हम दोनों अपने-अपने पैरों पर खड़े हैं। हमारे अभिभावक हमें देखकर अपनी छाती फुला लेते हैं। अब बारी थी  कि हम एक-दूसरे के जीवन साथी बने। जब हमने अपने-अपने परिवारवालों को अपनी-अपनी इच्छा बताई तो बिना किसी विवाद के दोनों के घरवालों ने हामी भर दी। एक को आईएफ़एस बहू और दूसरे को आईएएस दामाद मिलना किसी भी सूरत में घाटे का सौदा नहीं था। विवाह के बाद हम हनीमून मनाने सिंगापुर गए और हमने वहाँ अपने स्कूल के जीवन से लेकर यूनिवर्सिटी तक की सारी बातें विस्तार से की।
-    श्रीमती लेहा से मेरा माफी माँगना यह सिद्ध करता है कि मैं एक संस्कारी बालक हूँ।
-    मैंने फोन का प्रयोग अनावश्यक कामों के लिए कभी भी नहीं किया।
-    अगर आप किसी के जीवन से जुड़े हैं या कोई आपके जीवन से जुड़ा है तो दोनों एक दूसरे के लिए फायदेमंद साबित होने चाहिए।
-    आज के दौर में अपने प्यार को पाना बहुत आसान है क्योंकि जाति अब बड़ी बाधा नहीं बनती।
-    किसी भी स्थिति में प्रेम का विज्ञापन नहीं करना चाहिए। प्रेम दो हृदयों का मेल है इसमें तीसरे का कोई काम नहीं।
-    धैर्य और निरंतर प्रयास सफलता की गारंटी देता है।
-    जबर्दस्ती किसी पर अपने विचार थोपने से कहीं बेहतर है कि हम अपना व्यक्तित्व ही जबर्दस्त बना ले।   
-    यौन क्रियाएँ या कम-वासना के लिए एक निर्धारित समय और स्थान होता है।
-    पहले जीवन में परिश्रम और बाद में आराम यही नीति अपनानी चाहिए।
-    किसी भी हालत में अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होना चाहिए। सबसे पहले खुद को प्राथमिकता दें।        
                                                                                                                   अविनाश रंजन गुप्ता

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