Prabhu Ke Pravachan By Avinash Ranjan Gupta
प्रभु के प्रवचन
शांतनु एक सरल बालक है। यहाँ शांतनु
की सरलता को यूँ ही सरलता से नहीं लिया जा सकता क्योंकि आज के युग में सबसे कठिन
काम है - सरल बनना। शांतनु का सरल, शांत और सामान्य होना आज के तकनीकी और आधुनिक युग में लगभग नामुमकिन है। अपने
अध्यापकों द्वारा कथित तथा किसी भी पुस्तक में लिखित अच्छी बातों का उसपर बहुत ही
गहरा असर पड़ता है और इसका प्रायोगिक रूप अगले ही पल उसके आचरण और व्यवहार में
प्रदर्शित होने लगता है। परंतु उसके साथ एक यह भी समस्या थी कि सुने तथा पढ़े कथनों
को आचरण में उतारने के बाद जब उसके प्रतिकूल वह किसी को व्यवहार करते देखता तो वह
बहुत दुखी हो जाता और उस व्यक्ति से वह नफ़रत करने लगता। परंतु जैसे ही कोई अपने
आचरण के पीछे की वजह और आवश्यकताओं की वकालत करने लगता और उसके कथन प्रासंगिक और
ठोस मालूम पड़ते तो वह पुनः उन विचारों को अपने आचरण में उतारता। इस प्रकार एक
निर्दिष्ट विचार, आचरण और कार्यप्रणाली की खोज में वह सदा
परिवर्तन के स्रोत में बहता रहता। दूसरी ओर उसे ऐसा कोई भी नहीं मिल रहा था जो
उसके सवालों का माकुल जवाब देकर उसकी चित्त की व्यथा और द्वंद्व को समाप्त करता।
अब उसे विश्वास हो गया कि उसके सभी प्रश्नों
का उत्तर केवल एक स्रोत से प्राप्त हो सकता है और वो और कोई नहीं बल्कि हम सबको
बनाने वाले प्रभु ही हैं। शांतनु के सामने उन तमाम पौराणिक और धार्मिक धारावाहिकों
के गेरुए वस्त्र धारण किए उन साधुओं और महात्माओं की छवि दृष्टिगोचर होने लगी जो ध्यानमुद्रा
में बैठ विशिष्ट मंत्रों का उच्चारण और कठिन साधना कर ईश्वर को दर्शन देने के लिए बाध्य
कर देते हैं। उसने भी ईश्वर से अपने प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए तपस्या करने
हेतु अपनी आँखें बंद कीं। बहुत दिनों के बाद उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर साक्षात प्रभु
विष्णु अपने मूल रूप में उसे दर्शन देने के लिए पृथ्वी लोक पर आ ही गए।
द्वापर, त्रेता, सतयुग के बाद विष्णुजी कलियुग में इस
पृथ्वीलोक पर उतरे तो सभी युगों में अवतार के रूप में अवतरित हुए उनकी सारी
स्मृतियाँ हरी हो गईं और पृथ्वीलोक की बदली छवि ने तो उन्हें विस्मित ही कर डाला।
दंडवत स्थिति में शांतनु ईश्वर के दर्शन का लाभ पाकर अपने आपको धन्य समझ रहा था। प्रभु
विष्णु आशीर्वाद की मुद्रा में थे और मुखाकृति से ही यह भान हो रहा था कि वे
शांतनु की तपस्या से बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने शांतनु से तपस्या में लीन होने का
कारण पूछा तो शांतनु ने सारी बातें बताईं।
दर्शनार्थियों को दर्शन देकर उनकी
इच्छाओं की पूर्ति करकर शीघ्र ही अदृश्य हो जाने वाले प्रभु शांतनु के प्रश्नों के
उत्तर देने हेतु पालथी मारकर बैठ गए। शांतनु के सवालों ने मानों उनके घाव में पीड़ा
का संचार कर दिया हो। उन्होंने अपनी वाणी में पीड़ा प्रकट करते हुए कहा, “इस पृथ्वीलोक पर जब मैं स्वयं चार हाथों वाला से
दो हाथों वाला बन कर आया तो मेरे पत्नी ही खो गई। औरों के बहकावे में आकार समाज को
तृप्त करने के लिए मैंने अपनी पत्नी सीता को अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश किया।
अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होने के उपरांत भी राज्य और प्रजा की अस्मिता और इच्छा
का मान रखने के लिए मैंने अपनी प्रिय पत्नी सीता का त्याग कर उसे वन में भेज दिया।
इस पृथ्वीलोक के आरंभ से लेकर अब तक सच्चाई, धर्मनिष्ठा और
मानवता की परिभाषा को शत-प्रतिशत पारिभाषित कर पाना कभी भी किसी से भी संभव न हुआ
है न होता है और न ही होगा।”
ईश्वर की इन बातों कोई सुनकर शांतनु
निरुत्साहित हो गया। शांतनु की मुखाकृति को देख प्रभु ने कहा, “हे वत्स! पृथ्वीलोक में मनुष्य परिस्थितियों का
दास होता है। वह न चाहते हुए भी कभी-कभी अहित या अन्याय करने पर विवश हो जाता है।
ये अन्य स्थितियाँ होती हैं जब उसे अपने गलतियों को सुधारने का अवसर मिलता है।”
मैंने भी अपने रामावतार में छल से ही बालि का तथा कृष्णावातार में गुरु द्रोण का
क्रमश; वध किया और करवाया था। इसके पीछे भले ही मेरे
उद्देश्य नेक हों पर मैंने छल तो किया ही था। आज भी अनेक लोग ऐसा करते हैं पर उनके
कृत्य के पीछे केवल और केवल उनके स्वार्थ की सिद्धि होती है न कि लोक कल्याण की
भावना।
“परंतु क्या कभी भी इस संसार में चिर
शांति और अहिंसा स्थापित नहीं हो सकती?” शांतनु ने प्रश्न किया।
वत्स ऐसा तो शत-प्रतिशत कभी भी नहीं
हो सकता। मैंने त्रेता युग में भी कुरुक्षेत्र की समर भूमि में भी तुम्हारी तरह दुविधा
में पड़े अर्जुन के प्रश्नों का भी उत्तर देते हुए सांसरिक समस्याओं से विच्छिन्न
रहने की प्रक्रिया बताई थी। मैंने बुद्ध अवतार में सारे संसार को शांति और अहिंसा
का पाठ पढ़ाया था परंतु परिणाम क्या हुआ? आज भी हिंसा, प्रताड़ना, चोरी, शोषण सामान्य बात होकर रह गई है। बुराई, हिंसा, शोषण जैसे सामाजिक कीट पृथ्वीलोक के अस्तित्व से हैं और अंत तक रहेगा।
वास्तव में, बुराई, हिंसा, शोषण के होने से ही हमें अच्छाई, अहिंसा और मानवता
के मूल्य का बोध होता है। तो वत्स ऐसा मानकर कि संसार में चिर शांति क्यों नहीं
हैं, से दुखी होकर यह मान कर संतुष्ट होना श्रेयस्कर है कि
दुनिया में दोनों का अस्तित्व सदैव अपने घटते-बढ़ते अनुपात में रहेगा।
परंतु हे प्रभु! मुझे तो हर जगह से छल
और अवमानना ही प्राप्त होती है क्या इसके पीछे मेरी भलमनसाहत और आत्मीयता ज़िम्मेदार
है? वत्स! जिस किसी व्यक्ति के शील और कुल के बारे में
तुम्हें ज्ञान न हो उस पर विश्वास करना जुआ खेलने के बराबर है और जुआ खेलना युगों-युगों
से धन, मान के पतन का कारण माना जाता है। तुम भले हो यह सही
है परंतु बिना दूसरों के चरित्र पर आश्वस्त हुए उनपर विश्वास करना यह मूर्खता है।
मैंने भी अपने वामन अवतार में बलि से तीन पग धरती माँगी और उसने भी बिना सोचे-समझे
मेरी माँग स्वीकार कर ली थी। मेरा उद्देश्य तो सही था परंतु तुमसे छल करने वालों
का उद्देश्य नेक नहीं होता। भलाई तो इसी में है कि अब तुम समझदार बनो।
वत्स इस पृथ्वीलोक में जीवन ऐसे ही
बिताना पड़ता है। यहाँ भाँति-भाँति के लोग हैं और उन्हीं के बीचे में समायोजन करते
हुए तुम्हें जीवान पथ पर आगे बढ़ाना है। यहाँ अच्छे कर्मों का कोई मोल नहीं। यह
पृथ्वीलोक है यानी मर्त्यलोक यदि तुम अच्छे कर्म करना चाहते हो तो उसके पीछे तुम्हारा
उद्देश्य आत्म-संतुष्टि होनी चाहिए न कि दूसरों से प्रशंसा सुनने की इच्छा। इतिहास
में झाँको तो पता चलेगा कितने लोगों ने केवल मनुष्यता के लिए अपने प्राणों का
उत्सर्ग किया परंतु आज उनका नाम तक नहीं लिया जाता और जो इतिहास के पन्नों में
दर्ज भी हैं तो उनके ऊपर भी टीका-टिप्पणी की जाती हैं। इस पृथ्वीलोक में लोग केवल अपने से मतलब रखते
हैं, वे केवल अपना हित साधना चाहते हैं।
आज की दुनिया में वही देवता है जिसके
पास धन है। सारी चीज़ें धन का आश्रय लेती हैं। लोगों का मन और मस्तिष्क कमल के
पत्ते पर पानी की बूँद की तरह होता है जो स्थिर नहीं होता। आज मंदिरों और देवालयों
की संख्या भले ही बढ़ रही हो परंतु उसी अनुपात में पाप भी बढ़ रहा है। पौराणिक
संदर्भ के अनुसार कछुए की पीठ पर टिकी पृथ्वी और आकाश में ध्रुवतारा ये दो ही अपने
कार्य में पूर्णत: कर्मनिष्ठ है इसके
अलावा इस पृथ्वीलोक में कोई भी पूर्णत: कर्मनिष्ठ नहीं । यहाँ तक कि अगर अवतार के
रूप में स्वयं प्रभु भी इस पृथ्वीलोक पर आ जाएँ तो उन्हें भी शाप का भोगी बनना
पड़ता है या जलसमाधि लेने पर विवश हो जाना पड़ता है।
वत्स तुम भी अपने आचरण में
व्यावहारिकता का पुट मिलाओ। परिस्थिति के अनुसार कार्य करो परंतु कभी भी अपने अंदर
के मनुष्यता को मृत न होने दो। सबसे पहले अपने को प्राथमिकता दो परंतु कभी भी अपने
स्वार्थ को सर्वोपरि न मानो। यथासंभव लोक कल्याण के कार्य में संलग्न रहो तभी ऐसा माना
जाएगा कि इस संसार में तुम्हें भेजकर हमसे कोई त्रुटि नहीं हुई है।
“उठो शांतनु, उठो।” कहते हुए माँ ने शांतनु को उठाया।
शांतनु उठा, परंतु वह विस्मित था। उसे यह समझ में ही नहीं आ
रहा था कि वह थोड़ी देर पहले स्वप्न में था या अभी स्वप्न में है। खैर, सूर्य की तेज़ किरणों ने उसे वर्तमान के सत्य से परिचय करवाया। वह
मुस्कुरा रहा था क्योंकि यह स्वप्न उसके अभी तक के जीवन का ऐसा स्वप्न था जो उसे
आदि से लेकर अंत तक पूरा याद था। अगले ही पल उसके आचरण में ईश्वर की वाणी का
व्यावहारिक रूप दिखने लगा।
अविनाश रंजन गुप्ता
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