MAHADEVI VERMA – MADHUR – MADHUR MERE DEEPAK JAL महादेवी वर्मा — मधुर—मधुर मेरे दीपक जल MANUSHYATA मैथिलीशरण गुप्त — मनुष्यता CLASS X HINDI B 5 MARKS QUESTIONS ANSWERS
5 Marks Questions
1.
आपकी दृष्टि में ‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ कविता का सौंदर्य इनमें
से किस पर निर्भर है-
(क) शब्दों की आवृत्ति पर (ख) सफल बिंब अंकन पर
2.
क्या मीराबाई और आधुनिक मीरा ‘महादेवी वर्मा’ इन दोनों ने अपने-अपने आराध्य देव से मिलने की जो युक्तियाँ अपनाई हैं, उनमें आपको कुछ समानता या अंतर प्रतीत होता है? अपने विचार प्रकट कीजिए?
3.
‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल’ कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
5 Marks Answers
1.
हमारी दृष्टि में इस कविता का सौंदर्य शब्दों की आवृत्ति तथा सफल बिंब अंकन
दोनों पर ही निर्भर है। ‘मधुर मधुर’, ‘सिहर सिहर’, ‘पुलक पुलक’,‘गल गल’, ‘विहँस विहँस’ जैसे शब्दों की पुनरुक्ति कविता के सौंदर्य
की अभिवृद्धि कर रही है। वही धूप फैलाने, मोम के घुलने, प्रकाश का सिंधु, विश्व का
सिर धुनना आदि बिंबों के द्वारा दृश्य जीवंत हो उठे हैं। परंतु दोनों में सफल बिंब
अंकन पर कविता का सौंदर्य अधिक निर्भर रहा है।
2.
मीराबाई और आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा- इन दोनों ने अपने-अपने आराध्य देव से मिलाने के लिए जो युक्तियाँ अपनाई हैं, उनमें कई समानताएँ हैं तो कई अंतर भी हैं। जैसे-
साम्य- समानता यह है कि दोनों ही ईश्वर को अपना प्रियतम मानती हैं। दोनों ही उन्हें प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। दोनों ही उनसे मिलने को व्याकुल हैं। दोनों ही अपने प्रियतम को पाने के लिए अपना सर्वस्व न्योंछावर करने को उद्यत हैं।
विषमता- मीरा सगुण ईश्वर अर्थात कृष्ण की आराधिका हैं जबकि महादेवी वर्मा निर्गुण, निराकार परमात्मा की आराधना करती हैं। उनका प्रियतम अज्ञात है। मीरा अपने प्रियतम को नाच-गाकर रिझाती हैं, वे उनका चाकर भी बनने को तैयार हैं जबकि महादेवी वर्मा अपनी आत्मा रूपी दीपक को जलाकर उस तक पहुँचना चाहती हैं। उनकी युक्ति में सूक्ष्मता है।
मीरा की वेदना उनकी अपनी वेदना है जबकि महादेवी की पीड़ा जन-जन की पीड़ा है, उसमें लोकहित की भावना है।
3.
‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ कविता
प्रसिद्ध छायावादी कवयित्री आधुनिक मीरा सुश्री महादेवी वर्मा द्वारा प्रणीत है।
इसमें उन्होंने अपने हृदय को दीपक और परमात्मा को प्रियतम माना है और वह अपने हृदय
को प्रियतम को पाने के लिए प्रेम की राह पर आत्म बलिदान करने हेतु प्रेरित करते
हुए कहती हैं कि प्रेम के पथ को आलोकित करने के लिए अपना सर्वस्व इस प्रकार
न्योंछावर कर देना चाहिए जिससे सभी उत्साहहीन व्यक्तियों को प्रेम के पथ पर चलने
की प्रेरणा मिल सके। संसार को इस बात का पश्चाताप रहे कि वह क्यों नहीं इस बलिदान
में प्रतिभागी बनें। वे प्रकृति का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि नक्षत्र,सागर, बादल आदि
सभी में ईर्ष्या, तृष्णा भरी हुई है और आस्था का अभाव है। अतः
संशय और आशंका से विचलित हुए बिना सहर्ष अपने अस्तित्व को मिटाकर हृदय रूपी दीपक
को परमात्मा रूपी प्रियतम को पाने के लिए जलाना चाहिए अर्थात् आस्था के मार्ग पर
आत्मबलिदान कर देना चाहिए।
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