Prashn 3
लिखित
(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए-
1- लेखक ‘बालकृष्ण’ के मुँह पर छाई गोधूलि को श्रेष्ठ क्यों मानता है?
2- लेखक ने धूल और मिट्टी में क्या अंतर बताया है?
3- ग्रामीण परिवेश में प्रकृति धूल के कौन—कौन से सुंदर चित्र प्रस्तुत करती है?
4- ‘हीरा वही घन चोट न टूटे’- का संदर्भ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
5- धूल, धूलि, धूली, धूरि और गोधूलि की व्यंजनाओं को स्पष्ट कीजिए।
6- ‘धूल’ पाठ का मूल भाव स्पष्ट कीजिए।
7- कविता को विडंबना मानते हुए लेखक ने क्या कहा है?
1. लेखक ‘बालकृष्ण’ के मुँह पर छाई गोधूलि को श्रेष्ठ मानता है क्योंकि यह धूल उसके सौंदर्य को कई गुना बढ़ा देती है। यह सुंदरता वास्तविक है जबकि प्रसाधन सामग्री कृत्रिम सुंदरता का परिचायक है। ‘बालकृष्ण’ के मुँह पर छाई गोधूलि हमें उन दिनों की याद दिलाता है जब हमें शत-प्रतिशत कुदरत के संरक्षण तथा उसके नियमों के दायरे में रहना पसंद था ।
2. लेखक ने धूल और मिट्टी में विशेष अंतर नहीं माना है। उनके अनुसार तो धूल और मिट्टी में उतना ही अंतर है जितना कि शब्द और रस में देह और जान में और चाँद और चाँदनी में होता है। ये अलग होते हुए भी एक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं। ठीक उसी प्रकार मिट्टी की आभा का नाम धूल है। मिट्टी के रूप रंग की पहचान धूल से ही होती है।
3. ग्रामीण परिवेश में प्रकृति धूल के अनगिनत सुंदर चित्र प्रस्तुत करती हैं-
क. ग्रामीण परिवेश में रहने वाले शिशुओं के मुख पर यह धूल उनके सहज पावितरत को निखार देती है।
ख. गाँव के अखाड़ों की मिट्टी जो तेल और मट्ठे से सिझाई गई होती है उसे देवताओं पर चढ़ाया जाता है।
ग. गाँव में शाम को खलिहानों से लौटते हुए गायों के खुरों से उठने वाली धूल गोधूलि के दुर्लभ दृश्य का दर्शन लाभ कराती है।
घ. बैलगाड़ियों के निकल जाने के बाद पीछे उड़ने वाली धूल रुई के बादल के समान दिखाई देती है।
ङ. गाँव के किसानों के धूल और मिट्टी से सने हाथ-पैर हमरी सच्ची सभ्यता को प्रकट करती है।
4. ‘हीरा वही घन चोट न टूटे’- पंक्ति के माध्यम से लेखक दिखावे और कृत्रिमता से भ्रमित हुई जनता को यह बताना चाहते हैं कि हीरे और काँच में बहुत अंतर होता है। अज्ञानता के कारण आज की पीढ़ी काँच को ही हीरा समझ लेती है परंतु सच्चाई तो यह है कि काँच की चमक उस समय तक ही बनी रहती है जब तक उस पर प्रकाश पड़ रहा हो परंतु हीरा तो अँधेरे में भी चमकता है और घनिष्ठ प्रहार से भी नहीं टूटता। यहाँ काँच शहरी सभ्यता के खोखले प्रतीकों का द्योतक है और हीरा हमारी गाँव की प्राचीन और प्राकृतिक सभ्यता का।
5. ‘धूल’ प्रकृति का सत्य है,इसी धूल-मिट्टी से हमारा शरीर बना है। इसी धूल को कवियों ने अपनी-अपनी कविताओं में ‘धूलि’ कहकर प्रस्तुत किया है। ‘धूली’ छायावादी दर्शन है जो अस्पष्ट है। ‘धूरि’ लोक संस्कृति का जागरण है। इस शब्द का प्रयोग अभी भी भोले- भाले देहाती अपनी आम बोलचाल की भाषा में करते हैं। गौ-गौदालों के पद संचालन से उड़ने वाली धूल को ‘गोधूलि’ कहा गया है। ये सारे शब्द लगभग एक ही हैं पर भिन्न-भिन्न अर्थ देने में समर्थ हैं।
6. ‘धूल’ पाठ के माध्यम से लेखक ने धूल और मिट्टी की महिमा, माहात्म्य एवं उपयोगिता का वर्णन किया है और इससे जुड़े लोग जैसे- मजदूरों और किसानों के महत्त्व को भी स्पष्ट किया है। लेखक का मानना है कि आज समाज में मजदूरों और किसानों की भूमिका गौण होती दिखाई पड़ रही है उनके श्रम के अनुसार न तो उन्हें पारिश्रमिक मिलता है और न ही सम्मान। इन सबका कारण पाश्चात्य देशों से आयतित संस्कृति है जो मनुष्य को संवेदनहीन बना रही है।
7. लेखक का विचार है कि ‘गोधूलि’ पर अनेक कवियों ने कविताएँ लिखी हैं परंतु इन कविताओं में गोधूलि का वास्तविक रूप उभर कर नहीं आया है। इसका कारण केवल कवि में वर्ण्य की कमी नहीं बल्कि कविता के भाव को समझने के लिए पाठकों में संवेदना की कमी भी है। वर्तमान युग में जहाँ प्रतिदिन हजारों गाँववाले रोज़ी-रोटी की तलाश में शहर जाते हैं, दूसरी तरफ़ गाँव की प्राकृतिक सुंदरता शहर के बनावटी दिखावे के सामने कमजोर मालूम पड़ रही है ऐसे में कविता गाँव की गोधूलि का जीवंत रूप प्रस्तुत करने में अक्षम हैं।
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